Friday 15 October 2021

Negativity से Positivity की ओर बढिये।

 मैं अपने Office में कम्प्यूटर के सामने उदास हताश बैठा था 

ज़िन्दगी में कुछ भी अच्छा नही था 

हाल ही में मेरा Divorce हुआ था । मेरी पत्नी , जिसे मैं बहुत ज़्यादा प्यार करता था , मुझे छोड़ के चली गयी । 

उसने मुझसे तलाक़ ले लिया था । मेरा मन उसके प्रति कड़वाहट से भरा हुआ था । मैं दिन रात ईश्वर को और अपनी पत्नी को कोसता रहता था .....तुमने मेरे साथ ऐसा क्यों किया ????


तभी कंप्यूटर की स्क्रीन पे एक msg flash हुआ ।

आपका Password Expire हो गया है । 

कृपया नया पासवर्ड बनाएं । 

हमारी कंपनी में हमें सिस्टम में Login करने के लिये हर महीने नया password बदलना पड़ता है । 


तभी मुझे अपने एक पुराने मित्र की बात याद आ गयी । 

उन्होंने कहा था कि मैं एक ऐसा Password रखूंगा जो मेरी ज़िंदगी बदल देगा । 

मैं अपने BreakUp से उबरना चाहता था । मैं सब कुछ भूल के आगे बढ़ना चाहता था । 

मैंने नया password बनाया -- Forgive@Her 

अब मुझे दिन में कई कई बार ये पासवर्ड लिखना पड़ता था -- Forgive@Her

ये मुझे दिन भर याद दिलाता , बार बार याद दिलाता की मुझे अपनी पत्नी को माफ कर देना , भूल जाना है और ज़िन्दगी में आगे बढ़ जाना है ..... Move on ....... 

इस एक छोटे से बदलाव ने अपनी पूर्व पत्नी के प्रति मेरा नज़रिया ही बदल दिया ...... मैंने परिस्थितियों को स्वीकार कर लिया और आगे बढ़ गया ।

महीने भर के अंदर मैं अपने अवसाद से बाहर आ गया ।


एक महीने बाद फिर से नया password बनाना था ।

अबकी मैंने नया password रखा -- Quit@Smoking4Ever ...... मैं प्रतिदिन कई कई बार खुद को याद दिलाता था कि मुझे सिगरेट हमेशा के लिये छोड़ देनी है । महीने भर के भीतर ही मैंने सिगरेट छोड़ दी ।


अगले महीने मैंने नया password बनाया -- Save4Trip2Europe ..... 3 महीने के भीतर मैं यूरोप जाने के लिये तैयार था । 

कुछ महीने बाद मेरा अगला Password था --Life@ Beautiful ..... ज़िन्दगी कितनी खूबसूरत है ।

हम अपने दैनिक जीवन मे अपने Negative Thoughts को बार बार दोहराते रहते हैं । अपनी problems में ही दिन रात उलझे रहते हैं । 

दिन रात Problems पे ही Focus करते हैं ......Solutions के बारे में तो सोचते ही नही । 

आप दिन रात खुद से क्या बातें करते हैं , ये बहुत महत्वपूर्ण है । अपनी Self Talk में positivity लाइये । 

यहीं से बदलाव की शुरुआत होती है । 

Negativity से Positivity की ओर बढिये।

Problems से Solutions की तरफ बढिये ।


Readers Digest में प्रकाशित एक सत्य घटना .....

मूल रचना English में है

हिंदी रूपांतरण किया है ।

Monday 27 September 2021

पूर्वाग्रह

 


एक बार समुद्र के बीच में एक बड़े जहाज पर बड़ी दुर्घटना हो गयी। कप्तान ने जहाज खाली करने का आदेश दिया।जहाज पर एक युवा दम्पति थे।


जब लाइफबोट पर चढ़ने का उनका नम्बर आया तो देखा गया नाव पर केवल एक व्यक्ति के लिए ही जगह है। इस मौके पर आदमी ने अपनी पत्नी को अपने आगे से हटाया और नाव पर कूद गया।जहाज डूबने लगा।


डूबते हुए जहाज पर खड़ी औरत ने जाते हुए अपने पति से चिल्लाकर एक वाक्य कहा।


अब प्रोफेसर ने रुककर स्टूडेंट्स से पूछा – तुम लोगों को क्या लगता है, उस स्त्री ने अपने पति से क्या कहा होगा ?


ज्यादातर विद्यार्थी फ़ौरन चिल्लाये – स्त्री ने कहा – मैं तुमसे नफरत करती हूँ ! I hate you !


प्रोफेसर ने देखा एक स्टूडेंट एकदम शांत बैठा हुआ था, प्रोफेसर ने उससे पूछा कि तुम बताओ तुम्हे क्या लगता है ?


वो लड़का बोला – मुझे लगता है, औरत ने कहा होगा – हमारे बच्चे का ख्याल रखना !


प्रोफेसर को आश्चर्य हुआ, उन्होंने लडके से पूछा – क्या तुमने यह कहानी पहले सुन रखी थी ?


लड़का बोला- जी नहीं,लेकिन यही बात बीमारी से मरती हुई मेरी माँ ने मेरे पिता से कही थी।


प्रोफेसर ने दुखपूर्वक कहा – तुम्हारा उत्तर सही है !


प्रोफेसर ने कहानी आगे बढ़ाई – जहाज डूब गया, स्त्री मर गयी, पति किनारे पहुंचा और उसने अपना बाकी जीवन अपनी एकमात्र पुत्री, जो नानी के पास थी, उसके समुचित लालन-पालन में लगा दिया।कई सालों बाद जब वो व्यक्ति मर गया तो एक दिन सफाई करते हुए उसकी लड़की को अपने पिता की एक डायरी मिली।


डायरी से उसे पता चला कि जिस समय उसके माता-पिता उस जहाज पर सफर कर रहे थे तो उसकी माँ एक जानलेवा बीमारी से ग्रस्त थी और उनके जीवन के कुछ दिन ही शेष थे।


ऐसे कठिन मौके पर उसके पिता ने एक कड़ा निर्णय लिया और लाइफबोट पर कूद गया। उसके पिता ने डायरी में लिखा था – तुम्हारे बिना मेरे जीवन का कोई मतलब नहीं, मैं तो तुम्हारे साथ ही समंदर में समा जाना चाहता था. लेकिन अपनी संतान का ख्याल आने पर मुझे तुमको अकेले छोड़कर जाना पड़ा।


जब प्रोफेसर ने कहानी समाप्त की तो, पूरी क्लास में शांति थी।


इस संसार में कई सही / गलत बातें और कई जटिलतायें हैं, जिन्हें समझना आसान नहीं। इसीलिए ऊपरी सतह से देखकर बिना गहराई को जाने-समझे हर परिस्थिति का एकदम सही आकलन नहीं किया जा सकता।


●कलह होने पर जो पहले माफ़ी मांगे, जरुरी नहीं उसी की गलती हो। हो सकता है वो रिश्ते को बनाये रखना ज्यादा महत्वपूर्ण समझता हो।


●दोस्तों के साथ खाते-पीते, पार्टी करते समय जो दोस्त बिल अदा करता है, जरुरी नहीं उसकी जेब नोटों से ठसाठस भरी हो।हो सकता है उसके लिए दोस्ती के सामने पैसों की अहमियत कम हो।


●जो लोग आपकी मदद करते हैं, जरुरी नहीं वो आपके एहसानों के बोझ तले दबे हों। वो आपकी मदद करते हैं क्योंकि उनके दिलों में दयालुता और करुणा का निवास है।


●आजकल जीवन कठिन इसीलिए हो गया है क्योंकि हमने लोगो को समझना कम कर दिया और ऊपरी तौर पर judge करना शुरू कर दिया है। थोड़ी सी समझ और थोड़ी सी मानवता ही आपको सही रास्ता दिखा सकती है।


जीवन में निर्णय लेने के कई ऐसे पल आयेंगे,सो अगली बार किसी पर भी अपने #पूर्वाग्रह का ठप्पा लगाने से पहले विचार अवश्य करे। 


क्योंकि :"हर आँखो देखी और कानों सुनी बात सच्ची नहीं होती।"


(साभार -  अनजान, व्हाट्सएप से प्राप्त)

Saturday 4 September 2021

प्रेम किया है पण्डित जी, संग कैसे छोड़ दूँगी ?

 


"पण्डितराज"

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सत्रहवीं शताब्दी का पूर्वार्ध था, दूर दक्षिण में गोदावरी तट के एक छोटे राज्य की राज्यसभा में एक विद्वान ब्राह्मण सम्मान पाता था, नाम था जगन्नाथ शास्त्री। साहित्य के प्रकांड विद्वान, दर्शन के अद्भुत ज्ञाता। इस छोटे से राज्य के महाराज चन्द्रदेव के लिए जगन्नाथ शास्त्री सबसे बड़े गर्व थे। कारण यह कि जगन्नाथ शास्त्री कभी किसी से शास्त्रार्थ में पराजित नहीं होते थे। दूर दूर के विद्वान आये और पराजित हो कर जगन्नाथ शास्त्री की विद्वता का ध्वज लिए चले गए।


पण्डित जगन्नाथ शास्त्री की चर्चा धीरे-धीरे सम्पूर्ण भारत में होने लगी थी। उस समय दिल्ली पर मुगल शासक शाहजहाँ का शासन था। शाहजहाँ मुगल था, सो भारत की प्रत्येक सुन्दर वस्तु पर अपना अधिकार समझना उसे जन्म से सिखाया गया था। पण्डित जगन्नाथ की चर्चा जब शाहजहाँ के कानों तक पहुँची तो जैसे उसके घमण्ड को चोट लगी। "मुगलों के युग में एक तुच्छ ब्राह्मण अपराजेय हो, यह कैसे सम्भव है?", शाह ने अपने दरबार के सबसे बड़े मौलवियों को बुलवाया और जगन्नाथ शास्त्री तैलंग को शास्त्रार्थ में पराजित करने के आदेश के साथ महाराज चन्द्रदेव के राज्य में भेजा।  जगन्नाथ को पराजित कर उसकी शिखा काट कर मेरे कदमों में डालो...." 


शाहजहाँ का यह आदेश उन चालीस मौलवियों के कानों में स्थायी रूप से बस गया था।

सप्ताह भर पश्चात मौलवियों का दल महाराज चन्द्रदेव की राजसभा में पण्डित जगन्नाथ को शास्त्रार्थ की चुनौती दे रहा था। गोदावरी तट का ब्राह्मण और अरबी मौलवियों के साथ शास्त्रार्थ, पण्डित जगन्नाथ नें मुस्कुरा कर सहमति दे दी। मौलवी दल ने अब अपनी शर्त रखी, "पराजित होने पर शिखा देनी होगी..."। पण्डित की मुस्कराहट और बढ़ गयी, "स्वीकार है, पर अब मेरी भी शर्त है। आप सब पराजित हुए तो मैं आपकी दाढ़ी उतरवा लूंगा।" 


मुगल दरबार में "जहाँ पेड़ न खूंट वहाँ रेड़ परधान" की भांति विद्वान कहलाने वाले मौलवी विजय निश्चित समझ रहे थे, सो उन्हें इस शर्त पर कोई आपत्ति नहीं हुई।

शास्त्रार्थ क्या था; खेल था। अरबों के पास इतनी आध्यात्मिक पूँजी कहाँ जो वे भारत के समक्ष खड़े भी हो सकें। पण्डित जगन्नाथ विजयी हुए, मौलवी दल अपनी दाढ़ी दे कर दिल्ली वापस चला गया...


दो माह बाद महाराज चन्द्रदेव की राजसभा में दिल्ली दरबार का प्रतिनिधिमंडल याचक बन कर खड़ा था, "महाराज से निवेदन है कि हम उनकी राज्य सभा के सबसे अनमोल रत्न पण्डित जगन्नाथ शास्त्री तैलंग को दिल्ली की राजसभा में सम्मानित करना चाहते हैं, यदि वे दिल्ली पर यह कृपा करते हैं तो हम सदैव आभारी रहेंगे"।


मुगल सल्तनत ने प्रथम बार किसी से याचना की थी। महाराज चन्द्रदेव अस्वीकार न कर सके। पण्डित जगन्नाथ शास्त्री दिल्ली के हुए, शाहजहाँ नें उन्हें नया नाम दिया "पण्डितराज"।


दिल्ली में शाहजहाँ उनकी अद्भुत काव्यकला का दीवाना था, तो युवराज दारा शिकोह उनके दर्शन ज्ञान का भक्त। दारा शिकोह के जीवन पर सबसे अधिक प्रभाव पण्डितराज का ही रहा, और यही कारण था कि मुगल वंश का होने के बाद भी दारा मनुष्य बन गया।


मुगल दरबार में अब पण्डितराज के अलंकृत संस्कृत छंद गूंजने लगे थे। उनकी काव्यशक्ति विरोधियों के मुह से भी वाह-वाह की ध्वनि निकलवा लेती। यूँ ही एक दिन पण्डितराज के एक छंद से प्रभावित हो कर शाहजहाँ ने कहा- अहा! आज तो कुछ मांग ही लीजिये पंडितजी, आज आपको कुछ भी दे सकता हूँ।


पण्डितराज ने आँख उठा कर देखा, दरबार के कोने में एक हाथ माथे पर और दूसरा हाथ कमर पर रखे खड़ी एक अद्भुत सुंदरी पण्डितराज को एकटक निहार रही थी। अद्भुत सौंदर्य, जैसे कालिदास की समस्त उपमाएं स्त्री रूप में खड़ी हो गयी हों। पण्डितराज ने एक क्षण को उस रूपसी की आँखों मे देखा, मस्तक पर त्रिपुंड लगाए शिव की तरह विशाल काया वाला पण्डितराज उसकी आँख की पुतलियों में झलक रहा था। पण्डित ने मौन के स्वरों से ही पूछा- चलोगी?


लवंगी की पुतलियों ने उत्तर दिया- अविश्वास न करो पण्डित! प्रेम किया है....


पण्डितराज जानते थे यह एक नर्तकी के गर्भ से जन्मी 'लवंगी' थी। एक क्षण को पण्डित ने कुछ सोचा, फिर ठसक के साथ मुस्कुरा कर कहा-


न याचे गजालिं न वा वाजिराजिं,

न वित्तेषु चित्तं मदीयं कदाचित्।

इयं सुस्तनी मस्त कन्यस्तकुम्भा,

लवङ्गी कुरङ्गी मदङ्गी करोति ॥


शाहजहाँ मुस्कुरा उठा! कहा- लवंगी तुम्हारी हुई पण्डितराज। लवंगी अब पण्डित राज की पत्नी थी।


युग बीत रहा था। पण्डितराज दारा शिकोह के गुरु और परम मित्र के रूप में ख्यात थे। समय की अपनी गति है। शाहजहाँ के पराभव, औरंगजेब के उदय और दारा शिकोह की निर्मम हत्या के पश्चात पण्डितराज के लिए दिल्ली में कोई स्थान नहीं रहा। पण्डित राज दिल्ली से बनारस आ गए, साथ थी उनकी प्रेयसी लवंगी।


बनारस तो बनारस है, वह अपने ही ताव के साथ जीता है। बनारस किसी को इतनी सहजता से स्वीकार नहीं करता। और यही कारण है कि बनारस आज भी बनारस है, नहीं तो अरब की तलवार जहाँ भी पहुँची वहाँ की सभ्यता-संस्कृति को खा गई। यूनान, मिश्र, फारस, इन्हें सौ वर्ष भी नहीं लगे समाप्त होने में, बनारस हजार वर्षों तक प्रहार सहने के बाद भी "ॐ शं नो मित्रः शं वरुणः। शं नो भवत्वर्यमा...." गा रहा है। बनारस ने एक स्वर से पण्डितराज को अस्वीकार कर दिया। कहा- "लवंगी आपके विद्वता को खा चुकी, आप सम्मान के योग्य नहीं।"


तब बनारस के विद्वानों में पण्डित अप्पय दीक्षित और पण्डित भट्टोजि दीक्षित का नाम सबसे प्रमुख था, पण्डितराज का विद्वत समाज से बहिष्कार इन्होंने ही कराया।


पर पण्डितराज भी पण्डितराज थे, और लवंगी उनकी प्रेयसी। जब कोई कवि प्रेम करता है तो कमाल करता है। पण्डितराज ने कहा- लवंगी के साथ रह कर ही बनारस की मेधा को अपनी सामर्थ्य दिखाऊंगा।


पण्डितराज ने अपनी विद्वता दिखाई भी, पंडित भट्टोजि दीक्षित द्वारा रचित काव्य "प्रौढ़ मनोरमा" का खंडन करते हुए उन्होंने "प्रौढ़ मनोरमा कुचमर्दनम" नामक ग्रन्थ लिखा। बनारस में धूम मच गई, पर पण्डितराज को बनारस ने स्वीकार नहीं किया।

पण्डितराज नें पुनः लेखनी चलाई, पण्डित अप्पय दीक्षित द्वारा रचित "चित्रमीमांसा" का खंडन करते हुए "चित्रमीमांसाखंडन" नामक ग्रन्थ रच डाला।


बनारस अब भी नहीं पिघला, बनारस के पंडितों ने अब भी स्वीकार नहीं किया पण्डितराज को। पण्डितराज दुखी थे, बनारस का तिरस्कार उन्हें तोड़ रहा था। असाढ़ की सन्ध्या थी। गंगा तट पर बैठे उदास पण्डितराज ने अनायास ही लवंगी से कहा- गोदावरी चलोगी लवंगी? वह मेरी मिट्टी है, वह हमारा तिरस्कार नहीं करेगी।


लवंगी ने कुछ सोच कर कहा- गोदावरी ही क्यों, बनारस क्यों नहीं?  स्वीकार तो बनारस से ही करवाइए पंडीजी।

पण्डितराज ने थके स्वर में कहा- "अब किससे कहूँ, सब कर के तो हार गया..." लवंगी मुस्कुरा उठी, "जिससे कहना चाहिए उससे तो कहा ही नहीं।  गंगा से कहो, वह किसी का तिरस्कार नहीं करती। गंगा ने स्वीकार किया तो समझो शिव ने स्वीकार किया।"


पण्डितराज की आँखें चमक उठीं। उन्होंने एकबार पुनः झाँका लवंगी की आँखों में, उसमें अब भी वही बीस वर्ष पुराना उत्तर था- "प्रेम किया है पण्डित! संग कैसे छोड़ दूंगी?"


पण्डितराज उसी क्षण चले, और काशी के विद्वत समाज को चुनौती दी-"आओ कल गंगा के तट पर, तल में बह रही गंगा को सबसे ऊँचे स्थान पर बुला कर न दिखाया, तो पण्डित जगन्नाथ शास्त्री तैलंग अपनी शिखा काट कर उसी गंगा में प्रवाहित कर देगा......"


पल भर को हिल गया बनारस, पण्डितराज पर अविश्वास करना किसी के लिए सम्भव नहीं था। जिन्होंने पण्डितराज का तिरस्कार किया था, वे भी उनकी सामर्थ्य जानते थे।

अगले दिन बनारस का समस्त विद्वत समाज दशाश्वमेघ घाट पर एकत्र था।


पण्डितराज घाट की सबसे ऊपर की सीढ़ी पर बैठ गए, और #गंगालहरी का पाठ प्रारम्भ किया। लवंगी उनके निकट बैठी थी।


गंगा बावन सीढ़ी नीचे बह रही थीं। पण्डितराज ज्यों ज्यों श्लोक पढ़ते, गंगा एक एक सीढ़ी ऊपर आतीं। बनारस की विद्वता आँख फाड़े निहार रही थी। गंगालहरी के इक्यावन श्लोक पूरे हुए, गंगा इक्यावन सीढ़ी चढ़ कर पण्डितराज के निकट आ गयी थीं। पण्डितराज ने पुनः देखा लवंगी की आँखों में, अबकी लवंगी बोल पड़ी- "क्यों अविश्वास करते हो पण्डित? प्रेम किया है तुमसे..."


पण्डितराज ने मुस्कुरा कर बावनवाँ श्लोक पढ़ा। गंगा ऊपरी सीढ़ी पर चढ़ीं और पण्डितराज-लवंगी को गोद में लिए उतर गईं।


बनारस स्तब्ध खड़ा था, पर गंगा ने पण्डितराज को स्वीकार कर लिया था।

तट पर खड़े पण्डित अप्पय जी दीक्षित ने मुंह में ही बुदबुदा कर कहा- "क्षमा करना मित्र, तुम्हें हृदय से लगा पाता तो स्वयं को सौभाग्यशाली समझता, पर धर्म के लिए तुम्हारा बलिदान आवश्यक था। बनारस झुकने लगे तो सनातन नहीं बचेगा।"


युगों बीत गए। बनारस है, सनातन है, गंगा है, तो उसकी लहरों में पण्डितराज भी हैं।


(साभार -  अनजान, व्हाट्सएप से प्राप्त)