Tuesday 28 April 2020

अक्षय पात्र का प्रतीक !

महाभारत में युधिष्ठिर को सूर्य देवता से मिला अक्षय पात्र भला कौन नहीं चाहेगा! एक ऐसा जादुई बर्तन जिसमें पकाया हुआ खाना कभी खत्म ही नहीं होता। आज के मारामारी भरे जीवन में ऐसा बर्तन यदि किसी के हाथ लग जाए तो वह तो निहाल हो जाए। सबसे अधिक भला तो गृहिणियों का हों। दो-पाँच क्या सौ-दो सौ लोगों का परिवार भी हो तो द्रौपदी की तरह एक अकेली महिला सारा चौका सम्भाल लें !

लेकिन ऐसा होता नहीं है। इसलिए कि ऐसा कोई बर्तन नहीं है। न कभी था न होगा, जो सदा अक्षय रहे। हमारे तन-घट की तरह सारे बर्तन एक दिन क्षय हो ही जाने हैं! मगर महाभारतकार दावा करते हैं कि एक ऐसा ही कमाल का बर्तन था। तब मुझे लगता है कि न तो महाभारत अतिश्योक्ति करती हैं न हमारा अविश्वास ही अस्वाभाविक है। 

सच तो ये है कि अक्षय पात्र एक प्रतीक है जिसे सही अर्थों में ग्रहण किया जा सकें तो हम सभी के पास एक-एक अक्षय पात्र आ सकता है। हम सभी में अपने हक़ का अक्षय पात्र पाने की सामर्थ्य है मगर पात्र से पहले वह पात्रता चाहिए जिसके बूते पर युधिष्ठिर वह चमत्कारी बर्तन हाँसिल कर सकें और द्रौपदी जैसा वह अनुशासन जिसके प्रभाव से बनाई गई भोज्य सामग्री अक्षय रह सकें।

महाभारत के वनपर्व की यह अद्भुत कथा आपने निश्चित ही सुनी होगी! जिसके अनुसार दोबारा हुए एकमात्र दाँव के जूए में अपना सब कुछ हारकर युधिष्ठिर शर्त के परिपालन में भाइयों और द्रौपदी के साथ वन में चले आए। पहले दिन शाम को वे गङ्गा किनारे प्रमाण कोटि पर एक वटवृक्ष तक पहुँचे। सब इतने दुःखी और मन से थके हुए थे कि उस रात केवल जल पीकर ही सो गए। 

अगले दिन जब युधिष्ठिर वन की ओर जाने लगे तो हस्तिनापुर से उनके पीछे-पीछे स्नेहवश चले आए अनेक ब्राह्मण भी साथ चलने लगे। उनमें कई साग्नि थे तो कई निराग्नि। कई के साथ शिष्यगण थे तो कई के साथ बंधु-बान्धव भी। सन्दर्भों में संख्या तो नहीं है पर अनुमान लगाया जा सकता है कि दो-तीन सौ लोग तो रहे ही होंगे। फिर राजा के नाते युधिष्ठिर के साथ पुरोहित धौम्य और उनकी शिष्य मण्डली परम्परागत रूप से साथ थी ही।

इतने लोगों को वन में साथ ले चलने का मतलब था सबके भरण-पोषण की जिम्मेदारी उठाना। चारों पराक्रमी और आज्ञाकारी भाई इतने दुःखी थे कि युधिष्ठिर उन पर यह भार डालने के इच्छुक न थे।

और द्रौपदी ! उसका मन तो चीरहरण में चीरे गए अंग वस्त्र के तारों-सा ही छिन्न-भिन्न हो चुका था। जुआरी पति उसे किस मुँह से कहता कि प्रतिदिन दोनों समय इतनी बड़ी जमात के जीमने का प्रबंध करो !

कथा कहती है युधिष्ठिर ने साथ चलने को तत्पर उन ब्राह्मणों को वन के दोष और भय सब समझाए। यहाँ तक कह डाला कि अब मैं राजा नहीं हूँ। सर्वथा साधन और सुविधा से विहीन हूँ। इसलिए आप सबके भोजन की व्यवस्था नहीं कर सकता। अतः आप कृपा करके लौट जाइए, मगर ब्राह्मण न माने।

संकटकाल में उन सभी का अपने प्रति प्रेम देख युधिष्ठिर की आँखें भर आईं। जब ब्राह्मणों ने कहा कि आप हमारे खाने की चिंता न करें। हम अपना अपेक्षित स्वयं जुटा लेंगे पर साथ ले चलिए ताकि हम आपके लिए अभीष्ट-चिंतन और कल्याण की कामना कर सकें। तब तो युधिष्ठिर के लिए लाख न चाहते हुए भी उनका परित्याग असम्भव हो गया। पाण्डवों के रहते ब्राह्मणों को अपने भोजन का प्रबंध करना पड़े, यह कैसे सम्भव था! तब सबके भोजन की चिंता और प्रबंध न होने की स्थिति में अपकीर्ति से डरे युधिष्ठिर ने अपने पुरोहित धौम्य से मार्गदर्शन माँगा।

अरण्य पर्व के तीसरे अध्याय में वेदव्यास लिखते हैं, धौम्य ने उन्हें सारे जगत के अन्नदाता भगवान सूर्य को प्रसन्न करने की सलाह दी। जिस पर अमल करते हुए युधिष्ठिर ने गङ्गाजी में खड़े होकर सूर्य की 108 नामों से स्तुति की और भगवान भुवन भास्कर को प्रसन्न कर लिया। तब सम्पूर्ण जगत को धारण करने और निःस्वार्थ भाव से सबका पालन करने वाले सूर्यदेव मनुष्य रूप में प्रकट हुए। वे युधिष्ठिर के संकल्प, पवित्रता तथा सभी के लिए भोजन-भाव से अत्यंत प्रसन्न थे। उन्होंने एक दिव्य पात्र देते हुए युधिष्ठिर से कहा-

फलमूलामिषं शाकं संस्कृतं यन्महानसे।
चतुर्विधं तदन्नाद्यमक्षय्यं ते भविष्यति।।

' राजन् ! यह ताँबे की बटलोई लो। सुव्रत ! तुम्हारे रसोईघर में इस पात्र में फल, मूल, भोजन योग्य अन्य जो भी पदार्थ व साग आदि जो भी चार प्रकार की भोजन सामग्री तैयार होगी, वह तब तक अक्षय बनी रहेगी, जब तक द्रौपदी स्वयं भोजन न करके परोसती रहेगी। '

महाकवि कथा के हर अगले श्लोक में बार-बार ताल ठोंक कर कहते हैं कि जैसा सूर्यदेव ने कहा था, ठीक वैसा ही हुआ। जब तक सारे ब्राह्मण पाण्डवों के साथ रहे, पाण्डव सबसे पहले उन्हें भोजन कराते, फिर स्वयं करते और सबके अंत में जब द्रौपदी अपना भाग निकाल लेती, तभी ताँबे की वह अद्भुत बटलोई खाली होती।

साधो ! बस यहीं सूत्र है। युधिष्ठिर को अपनी और भाइयों से अधिक अपनों की चिंता थी तो भगवान धरती पर उतर आए और जादूई बर्तन उपहार दे गए। वह भी मात्र एक दिन की तपस्या में। इसलिए कि युधिष्ठिर की माँग के मूल में परोपकार था। वह अक्षय रहता था मगर तब तक जब तक गृह लक्ष्मी अपना हिस्सा न निकालती थी तब तक। 

मानो महाभारत सिखाती हैं जब तक हम अपना परोपकार में व्यय करते हैं, तब तक हमारा पात्र अक्षय बना रहता है। जैसे ही हम 'अपने हिस्से' पर आते हैं, उस अक्षय का भी क्षय हो जाता है।

क़दाचित यही अक्षय पात्र का प्रतीक हैं !

(Courtesy - Unknown WhatsApp forwarded message)

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