Friday 24 July 2020

🌺 बाबूजी 🌺 - एक बेटी की व्यथा...

निशा काम निपटा कर बैठी ही थी कि फोन की घंटी बजने लगी।

मेरठ से विमला चाची का फोन था, 

”बिटिया अपने बाबू जी को आकर ले जाओ यहां से। बीमार रहने लगे हैं, बहुत कमजोर हो गए हैं। हम भी कोई जवान तो हो नहीं रहे हैं, अब उनका करना बहुत मुश्किल होता जा रहा है। वैसे भी आखिरी समय अपने बच्चों के साथ बिताना चाहिए।”

निशा बोली, ”ठीक है चाची जी इस रविवार को आते हैं, बाबू जी को हम दिल्ली ले आएंगे।”

फिर इधर उधर की बातें करके फोन काट दिया।

बाबूजी तीन भाई है, पुश्तैनी मकान है तीनों वहीं रहते हैं।
निशा और उसका छोटा भाई विवेक दिल्ली में रहते हैं अपने अपने परिवार के साथ। तीन चार साल पहले विवेक को फ्लेट खरीदने की लिए पैसे की आवश्यकता पड़ी तो बाबूजी ने भाईयों से मकान के अपने एक तिहाई हिस्से का पैसा लेकर विवेक को दे दिया था, कुछ खाने पहनने के लिए अपने लायक रखकर।

दिल्ली आना नहीं चाहते थे इसलिए एक छोटा सा कमरा रख लिया था जब तक जीवित थे तब तक के लिए।

निशा को लगता था कि अम्मा के जाने के बाद बिल्कुल अकेले पड़ गए होंगे बाबूजी लेकिन वहां पुराने परिचितों के बीच उनका मन लगता था।

दोनों चाचियां भी ध्यान रखती थी। दिल्ली में दोनों भाई बहन की गृहस्थी भी मज़े से चल रही थी।

रविवार को निशा और विवेक का ही कार्यक्रम बन पाया मेरठ जाने का।

निशा के पति अमित एक व्यस्त डाक्टर हैं महिने की लाखों की कमाई है उनका इस तरह से छुट्टी लेकर निकलना बहुत मुश्किल है, मरीजों की बीमारी न रविवार देखती है न सोमवार।

विवेक की पत्नी रेनू की अपनी जिंदगी है उच्च वर्गीय परिवारों में उठना बैठना है उसका, इस तरह के छोटे मोटे पारिवारिक पचड़ों में पड़ना उसे पसंद नहीं।

रास्ते भर निशा को लगा विवेक कुछ अनमना, गुमसुम सा बैठा है।
वह बोली, ”इतना परेशान मत हो, ऐसी कोई चिंता की बात नहीं है, उम्र हो रही है, थोड़े कमजोर हो गए हैं ठीक हो जाएंगे।”

विवेक झींकते हुए बोला, ”अच्छा खासा चल रहा था, पता नहीं चाचा जी को ऐसी क्या मुसीबत आ गई, दो चार साल और रख लेते तो।

अब तो मकानों के दाम आसमान छू रहे हैं, तब कितने कम पैसों में अपने नाम करवा लिया तीसरा हिस्सा।”

निशा शांत करने की मंशा से बोली, ”ठीक है न उस समय जितने भाव थे बाजार में उस हिसाब से दे दिए और बाबूजी आखरी समय अपने बच्चों के बीच बिताएंगे तो उन्हें अच्छा लगेगा।”

विवेक उत्तेजित हो गया, बोला, ”दीदी तेरे लिए यह सब कहना बहुत आसान है। तीन कमरों के फ्लेट में कहां रखूंगा उन्हें। रेनू से किट किट रहेगी सो अलग, उसने तो साफ़ मना कर दिया है, वह बाबूजी का कोई काम नहीं करेंगी।

वैसे तो दीदी लड़कियां हक़ मांगने तो बडी जल्दी खड़ी हो जाती हैं, करने के नाम पर क्यों पीछे हट जाती हैं।

आज कल लड़कियों की शिक्षा और शादी के समय में अच्छा खासा खर्च हो जाता है। तू क्यों नहीं ले जाती बाबूजी को अपने घर, इतनी बड़ी कोठी है, जीजा जी की लाखों की कमाई है ?”

निशा को विवेक का इस तरह बोलना ठीक नहीं लगा। पैसे लेते हुए कैसे वादा कर रहा था बाबूजी से, ”आपको किसी भी वस्तु की आवश्यकता हो आप निसंकोच फोन कर देना मैं तुरंत लेकर आ जाऊंगा। बस इस समय हाथ थोड़ा तंग है।”

नाममात्र पैसे छोडे थे बाबूजी के पास और फिर कभी फटका भी नहीं उनकी सुध लेने।

निशा : ”तू चिंता मत कर मैं ले जाऊंगी बाबूजी को अपने घर।”

सही है उसे क्या परेशानी, इतना बड़ा घर फिर पति रात दिन मरीजों की सेवा करते है, एक पिता तुल्य ससुर को आश्रय तो दे ही सकते हैं।

बाबूजी को देख कर उसकी आंखें भर आईं। इतने दुबले और बेबस दिख रहे थे, गले लगते हुए बोली, ”पहले फोन करवा देते पहले लेने आ जाती।”

बाबूजी बोलें, ”तुम्हारी अपनी जिंदगी है क्या परेशान करता।
वैसे भी दिल्ली में बिल्कुल तुम लोगों पर आश्रित हो जाऊंगा।”

रात को डाक्टर साहब बहुत देर से आएं, तब तक पिता और बच्चे सो चुके थे।

खाना खाने के बाद सुकून से बैठते हुए निशा ने डाक्टर साहब से कहा, ”बाबूजी को मैं यहां ले आईं हूँ। विवेक का घर बहुत छोटा है, उसे उन्हें रखने में थोड़ी परेशानी होती।”

अमित के एक दम तेवर बदल गए, वह सख्त लहजे में बोला, ”यहां ले आईं हूँ से क्या मतलब है तुम्हारा ?
तुम्हारे पिताजी तुम्हारे भाई की जिम्मेदारी हैं। मैंने बड़ा घर वृद्धाश्रम खोलने के लिए नहीं लिया था, अपने रहने के लिए लिया है।

जायदाद के पैसे हड़पते हुए नहीं सोचा था साले साहब ने कि पिता की सेवा भी करनी पड़ेगी।

रात दिन मेहनत करके पैसा कमाता हूँ, फालतू लुटाने के लिए नहीं है मेरे पास।

पति के इस रूप से अनभिज्ञ थी निशा। “रात दिन मरीजों की सेवा करते हो मेरे पिता के लिए क्या आपके घर और दिल में इतना सा स्थान भी नहीं है।”

अमित के चेहरे की नसें तनीं हुईं थीं, वह लगभग चीखते हुए बोला, ”मरीज़ बीमार पड़ता है पैसे देता है ठीक होने के लिए, मैं इलाज करता हूँ पैसे लेता हूँ। यह व्यापारिक समझौता है इसमें सेवा जैसा कुछ नहीं है। यह मेरा काम है मेरी रोजी-रोटी है। बेहतर होगा तुम एक दो दिन में अपने पिता को विवेक के घर छोड़ आओ।”

निशा को अपने कानों पर विश्वास नहीं हो रहा था। जिस पति की वह इतनी इज्जत करती है वे ऐसा बोल सकते हैं।

क्यों उसने अपने भाई और पति पर इतना विश्वास किया ?

क्यों उसने शुरू से ही एक एक पैसा का हिसाब नहीं रखा ?

अच्छी खासी नौकरी करती थी, पहले पुत्र के जन्म पर अमित ने यह कह कर छुड़वा दी कि मैं इतना कमाता हूँ तुम्हें नौकरी करने की क्या आवश्यकता है।

तुम्हें किसी चीज़ की कमी नहीं रहेगी आराम से घर रहकर बच्चों की देखभाल करो।

आज अगर नौकरी कर रही होती तो अलग से कुछ पैसे होते उसके पास या दस साल से घर में सारा दिन काम करने के बदले में पैसे की मांग करती तो इतने तो हो ही जाते की पिता जी की देखभाल अपने दम पर कर पाती।

कहने को तो हर महीने बैंक में उसके नाम के खाते में पैसे जमा होते हैं लेकिन उन्हें खर्च करने की बिना पूछे उसे इजाज़त नहीं थी।

भाई से भी मन कर रहा था कह दे शादी में जो खर्च हुआ था वह निकाल कर जो बचता है उसका आधा आधा कर दे। कम से कम पिता इज्जत से तो जी पाएंगे।

पति और भाई दोनों को पंक्ति में खड़ा कर के बहुत से सवाल करने का मन कर रहा था, जानती थी जवाब कुछ न कुछ तो अवश्य होंगे। लेकिन इन सवाल जवाब में रिश्तों की परतें दर परतें उखड़ जाएंगी और जो नग्नता सामने आएगी। उसके बाद रिश्ते ढोने मुश्किल हो जाएंगे।

सामने तस्वीर में से झांकती दो जोड़ी आंखें जुबान पर ताला डाल रहीं थीं। अगले दिन अमित के अस्पताल जाने के बाद जब नाश्ता लेकर निशा बाबूजी के पास पहुंची तो वे समान बांधे बैठें थे।

उदासी भरे स्वर में बोले, ”मेरे कारण अपनी गृहस्थी मत ख़राब कर। पता नहीं कितने दिन है मेरे पास कितने नहीं। मैंने इस वृद्धाश्रम में बात कर ली है जितने पैसे मेरे पास है, उसमें मुझे वे लोग रखने को तैयार है। ये ले पता तू मुझे वहां छोड़ आ और निश्चित होकर अपनी गृहस्थी सम्भाल।”

निशा समझ गई बाबूजी की देह कमजोर हो गई है दिमाग नहीं।

दामाद काम पर जाने से पहले मिलने भी नहीं आया साफ़ बात है ससुर का आना उसे अच्छा नहीं लगा।

क्या सफाई देती चुपचाप टैक्सी बुलाकर उनके दिए पते पर उन्हें छोड़ने चल दी। नजरें नहीं मिला पा रही थी, न कुछ बोलते बन रहा था।
 
बाबूजी ने ही उसका हाथ दबाते हुए कहा, ”परेशान मत हो बिटिया, परिस्थितियों पर कब हमारा बस चलता है।

मैं यहां अपने हम उम्र लोगों के बीच खुश रहूंगा।”

तीन दिन हो गए थे बाबूजी को वृद्धाश्रम छोड़कर आए हुए। निशा का न किसी से बोलने का मन कर रहा था न कुछ खाने का। फोन करके पूछने की भी हिम्मत नहीं हो रही थी वे कैसे हैं ?

इतनी ग्लानि हो रही थी कि किस मुंह से पूछे। वृद्धाश्रम से ही फोन आ गया कि बाबूजी अब इस दुनिया में नहीं रहे। दस बजे थे बच्चे पिकनिक पर गए थे आठ नौ बजे तक आएंगे, अमित तो आतें ही दस बजे तक है। किसी की भी दिनचर्या पर कोई असर नहीं पड़ेगा, किसी को सूचना भी क्या देना। विवेक आफिस चला गया होगा बेकार छुट्टी लेनी पड़ेगी।

रास्ते भर अविरल अश्रु धारा बहती रही कहना मुश्किल था पिता के जाने के ग़म में या अपनी बेबसी पर आखिरी समय पर पिता के लिए कुछ नहीं कर पायी।

तीन दिन केवल तीन दिन अमित ने उसके पिता को मान और आश्रय दे दिया होता तो वह हृदय से अमित को परमेश्वर मान लेती।

वृद्धाश्रम के संचालक महोदय के साथ मिलकर उसने औपचारिकताएं पूर्ण की।

वह बोल रहे थे, ”इनके बहू, बेटा और दामाद भी है रिकॉर्ड के हिसाब से। उनको भी सूचना दे देते तो अच्छा रहता।

वह कुछ सम्भल चुकी थी बोली, नहीं इनका कोई नहीं है न बहू न बेटा और न दामाद। बस एक बेटी है वह भी नाम के लिए।”

संचालक महोदय अपनी ही धुन में बोल रहे थे, ”परिवार वालों को सांत्वना और बाबूजी की आत्मा को शांति मिले।”

निशा सोच रही थी ‘बाबूजी की आत्मा को शांति मिल ही गई होगी। जाने से पहले सबसे मोह भंग हो गया था। समझ गये होंगे कोई किसी का नहीं होता, फिर क्यों आत्मा अशान्त होगी।

”हाँ, परमात्मा उसको इतनी शक्ति दें कि किसी तरह वह बहन और पत्नी का रिश्ता निभा सकें।“

ये पैसा ही है जो एक हर रिश्ते की रिश्तेदारी निभा रहा है।

मैं भी एक बेटी हूँ मगर एक बात कहना चाहती हूँ कि हर इंसान को अपने हाथ नहीं काट देने चाहिए ममता में हो के...

अपने भाविष्य के लिए कुछ न कुछ रख लेना चाहिए, ....बाद में तो उनका ही है मगर जीते जी मरने से तो अच्छा है...


(Courtesy - Unknown WhatsApp forwarded message)

" मुझे अच्छा नही लगता " - मर्म स्पर्शी कविता।

रूपाली टंडन जी की  लिखी कविता। मुझे बहुत पसंद आई इसीलिए आप सबसे शेयर कर रहा हूं ।

" मुझे अच्छा नही लगता "
 
मैं रोज़ खाना पकाती हू,
तुम्हे बहुत पयार से खिलाती हूं,
पर तुम्हारे जूठे बर्तन उठाना,
मुझे अच्छा नही लगता

कई वर्षो से हम तुम साथ रहते है, 
लाज़िम है कि कुछ मतभेद तो होगे,
पर तुम्हारा बच्चों के सामने चिल्लाना,
मुझे अच्छा नही लगता

हम दोनों को ही जब किसी फंक्शन मे जाना हो,
तुम्हारा पहले कार मे बैठ कर यू हार्न बजाना,
मुझे अच्छा नही लगता

जब मै शाम को काम से थक कर घर वापिस आती हू,
तुम्हारा गीला तौलिया बिस्तर से उठाना,
मुझे अच्छा नही लगता

माना कि तुम्हारी महबूबा थी वह कई बरसों पहले,
पर अब उससे तुम्हारा घंटों बतियाना,
मुझे अच्छा नही लगता

माना कि अब बच्चे हमारे कहने में नहीं है,
पर उनके बिगड़ने का सारा इल्ज़ाम मुझ पर लगाना,
मुझे अच्छा नही लगता

अभी पिछले वर्ष ही तो गई थी,
यह कह कर तुम्हारा,
मेरी राखी डाक से भिजवाना
मुझे अच्छा नही लगता

पूरा वर्ष तुम्हारे साथ ही तो रहती हूँ,
पर तुम्हारा यह कहना कि,
ज़रा मायके से जल्दी लौट आना,
मुझे अच्छा नही लगता

तुम्हारी माँ के साथ तो मैने इक उम्र गुजार दी,
मेरी माँ से दो बातें करते तुम्हारा हिचकिचाना,
मुझे अच्छा नहीं लगता

यह घर तेरा भी है हमदम,
यह घर मेरा भी है हमदम,
पर घर के बाहर सिर्फ,
तुम्हारा नाम लिखवाना,
मुझे अच्छा नही लगता

मै चुप हूँ कि मेरा मन उदास है,
पर मेरी खामोशी को तुम्हारा,
यू नज़र अंदाज कर जाना
मुझे अच्छा नही लगता

पूरा जीवन तो मैने ससुराल में गुज़ारा है,
फिर मायके से मेरा कफन मंगवाना,
मुझे अच्छा नहीं लगता

अब मै जोर से नही हंसती,
ज़रा सा मुस्कुराती हू,
पर ठहाके मार के हंसना और खिलखिलाना,
मुझे भी अच्छा लगता है

Sunday 12 July 2020

क्रोध

एक पिता ने अपने गुस्सैल बेटे से तंग आकर उसे कीलों से भरा एक थैला देते हुए कहा ,"तुम्हें जितनी बार क्रोध आए तुम थैले से एक कील निकाल कर बाड़े में ठोंक देना !"

🎯बेटे को अगले दिन जैसे ही क्रोध आया उसने एक कील बाड़े की दीवार पर ठोंक दी। यह प्रक्रिया वह लगातार करता रहा।

🤦🏻‍♂धीरे धीरे उसकी समझ में आने लगा कि कील ठोंकने की व्यर्थ मेहनत करने से अच्छा तो अपने क्रोध पर नियंत्रण करना है और क्रमशः कील ठोंकने की उसकी संख्या कम होती गई।

🙋🏻‍♂एक दिन ऐसा भी आया कि बेटे ने दिन में एक भी कील नहीं ठोंकी।

🤷🏻‍♂उसने खुशी खुशी यह बात अपने पिता को बताई। वे बहुत प्रसन्न हुए और कहा, "जिस दिन तुम्हें लगे कि तुम एक बार भी क्रोधित नहीं हुए, ठोंकी हुई कीलों में से एक कील निकाल लेना।"

🙅🏻‍♂बेटा ऐसा ही करने लगा। एक दिन ऐसा भी आया कि बाड़े में एक भी कील नहीं बची। उसने खुशी खुशी यह बात अपने पिता को बताई।

पिता उस लड़के को बाड़े में लेकर गए और कीलों के छेद दिखाते हुए पूछा, "क्या तुम ये छेद भर सकते हो?"
🌿बेटे ने कहा,"नहीं पिताजी!"

🌿पिता ने उसके कन्धे पर हाथ रखते हुए कहा,"अब समझे बेटा, क्रोध में तुम्हारे द्वारा कहे गए कठोर शब्द, दूसरे के दिल में ऐसे छेद कर देते हैं, जिनकी भरपाई भविष्य में तुम कभी नहीं कर सकते 

 सन्देश : जब भी आपको क्रोध आये तो सोचिएगा कि कहीं आप भी किसी के दिल में कील ठोंकने तो नहीं जा रहे ?                                                             
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