Tuesday 28 April 2020

अक्षय पात्र का प्रतीक !

महाभारत में युधिष्ठिर को सूर्य देवता से मिला अक्षय पात्र भला कौन नहीं चाहेगा! एक ऐसा जादुई बर्तन जिसमें पकाया हुआ खाना कभी खत्म ही नहीं होता। आज के मारामारी भरे जीवन में ऐसा बर्तन यदि किसी के हाथ लग जाए तो वह तो निहाल हो जाए। सबसे अधिक भला तो गृहिणियों का हों। दो-पाँच क्या सौ-दो सौ लोगों का परिवार भी हो तो द्रौपदी की तरह एक अकेली महिला सारा चौका सम्भाल लें !

लेकिन ऐसा होता नहीं है। इसलिए कि ऐसा कोई बर्तन नहीं है। न कभी था न होगा, जो सदा अक्षय रहे। हमारे तन-घट की तरह सारे बर्तन एक दिन क्षय हो ही जाने हैं! मगर महाभारतकार दावा करते हैं कि एक ऐसा ही कमाल का बर्तन था। तब मुझे लगता है कि न तो महाभारत अतिश्योक्ति करती हैं न हमारा अविश्वास ही अस्वाभाविक है। 

सच तो ये है कि अक्षय पात्र एक प्रतीक है जिसे सही अर्थों में ग्रहण किया जा सकें तो हम सभी के पास एक-एक अक्षय पात्र आ सकता है। हम सभी में अपने हक़ का अक्षय पात्र पाने की सामर्थ्य है मगर पात्र से पहले वह पात्रता चाहिए जिसके बूते पर युधिष्ठिर वह चमत्कारी बर्तन हाँसिल कर सकें और द्रौपदी जैसा वह अनुशासन जिसके प्रभाव से बनाई गई भोज्य सामग्री अक्षय रह सकें।

महाभारत के वनपर्व की यह अद्भुत कथा आपने निश्चित ही सुनी होगी! जिसके अनुसार दोबारा हुए एकमात्र दाँव के जूए में अपना सब कुछ हारकर युधिष्ठिर शर्त के परिपालन में भाइयों और द्रौपदी के साथ वन में चले आए। पहले दिन शाम को वे गङ्गा किनारे प्रमाण कोटि पर एक वटवृक्ष तक पहुँचे। सब इतने दुःखी और मन से थके हुए थे कि उस रात केवल जल पीकर ही सो गए। 

अगले दिन जब युधिष्ठिर वन की ओर जाने लगे तो हस्तिनापुर से उनके पीछे-पीछे स्नेहवश चले आए अनेक ब्राह्मण भी साथ चलने लगे। उनमें कई साग्नि थे तो कई निराग्नि। कई के साथ शिष्यगण थे तो कई के साथ बंधु-बान्धव भी। सन्दर्भों में संख्या तो नहीं है पर अनुमान लगाया जा सकता है कि दो-तीन सौ लोग तो रहे ही होंगे। फिर राजा के नाते युधिष्ठिर के साथ पुरोहित धौम्य और उनकी शिष्य मण्डली परम्परागत रूप से साथ थी ही।

इतने लोगों को वन में साथ ले चलने का मतलब था सबके भरण-पोषण की जिम्मेदारी उठाना। चारों पराक्रमी और आज्ञाकारी भाई इतने दुःखी थे कि युधिष्ठिर उन पर यह भार डालने के इच्छुक न थे।

और द्रौपदी ! उसका मन तो चीरहरण में चीरे गए अंग वस्त्र के तारों-सा ही छिन्न-भिन्न हो चुका था। जुआरी पति उसे किस मुँह से कहता कि प्रतिदिन दोनों समय इतनी बड़ी जमात के जीमने का प्रबंध करो !

कथा कहती है युधिष्ठिर ने साथ चलने को तत्पर उन ब्राह्मणों को वन के दोष और भय सब समझाए। यहाँ तक कह डाला कि अब मैं राजा नहीं हूँ। सर्वथा साधन और सुविधा से विहीन हूँ। इसलिए आप सबके भोजन की व्यवस्था नहीं कर सकता। अतः आप कृपा करके लौट जाइए, मगर ब्राह्मण न माने।

संकटकाल में उन सभी का अपने प्रति प्रेम देख युधिष्ठिर की आँखें भर आईं। जब ब्राह्मणों ने कहा कि आप हमारे खाने की चिंता न करें। हम अपना अपेक्षित स्वयं जुटा लेंगे पर साथ ले चलिए ताकि हम आपके लिए अभीष्ट-चिंतन और कल्याण की कामना कर सकें। तब तो युधिष्ठिर के लिए लाख न चाहते हुए भी उनका परित्याग असम्भव हो गया। पाण्डवों के रहते ब्राह्मणों को अपने भोजन का प्रबंध करना पड़े, यह कैसे सम्भव था! तब सबके भोजन की चिंता और प्रबंध न होने की स्थिति में अपकीर्ति से डरे युधिष्ठिर ने अपने पुरोहित धौम्य से मार्गदर्शन माँगा।

अरण्य पर्व के तीसरे अध्याय में वेदव्यास लिखते हैं, धौम्य ने उन्हें सारे जगत के अन्नदाता भगवान सूर्य को प्रसन्न करने की सलाह दी। जिस पर अमल करते हुए युधिष्ठिर ने गङ्गाजी में खड़े होकर सूर्य की 108 नामों से स्तुति की और भगवान भुवन भास्कर को प्रसन्न कर लिया। तब सम्पूर्ण जगत को धारण करने और निःस्वार्थ भाव से सबका पालन करने वाले सूर्यदेव मनुष्य रूप में प्रकट हुए। वे युधिष्ठिर के संकल्प, पवित्रता तथा सभी के लिए भोजन-भाव से अत्यंत प्रसन्न थे। उन्होंने एक दिव्य पात्र देते हुए युधिष्ठिर से कहा-

फलमूलामिषं शाकं संस्कृतं यन्महानसे।
चतुर्विधं तदन्नाद्यमक्षय्यं ते भविष्यति।।

' राजन् ! यह ताँबे की बटलोई लो। सुव्रत ! तुम्हारे रसोईघर में इस पात्र में फल, मूल, भोजन योग्य अन्य जो भी पदार्थ व साग आदि जो भी चार प्रकार की भोजन सामग्री तैयार होगी, वह तब तक अक्षय बनी रहेगी, जब तक द्रौपदी स्वयं भोजन न करके परोसती रहेगी। '

महाकवि कथा के हर अगले श्लोक में बार-बार ताल ठोंक कर कहते हैं कि जैसा सूर्यदेव ने कहा था, ठीक वैसा ही हुआ। जब तक सारे ब्राह्मण पाण्डवों के साथ रहे, पाण्डव सबसे पहले उन्हें भोजन कराते, फिर स्वयं करते और सबके अंत में जब द्रौपदी अपना भाग निकाल लेती, तभी ताँबे की वह अद्भुत बटलोई खाली होती।

साधो ! बस यहीं सूत्र है। युधिष्ठिर को अपनी और भाइयों से अधिक अपनों की चिंता थी तो भगवान धरती पर उतर आए और जादूई बर्तन उपहार दे गए। वह भी मात्र एक दिन की तपस्या में। इसलिए कि युधिष्ठिर की माँग के मूल में परोपकार था। वह अक्षय रहता था मगर तब तक जब तक गृह लक्ष्मी अपना हिस्सा न निकालती थी तब तक। 

मानो महाभारत सिखाती हैं जब तक हम अपना परोपकार में व्यय करते हैं, तब तक हमारा पात्र अक्षय बना रहता है। जैसे ही हम 'अपने हिस्से' पर आते हैं, उस अक्षय का भी क्षय हो जाता है।

क़दाचित यही अक्षय पात्र का प्रतीक हैं !

(Courtesy - Unknown WhatsApp forwarded message)

Saturday 11 April 2020

रामायण में उल्लेखित रावण द्वारा सीताहरण करके श्रीलंका जाते समय पुष्पक विमान का मार्ग ।

🙏 ।। जै श्रीराम ।। 🙏



रावण ने माँ सीता का अपहरण पंचवटी (नासिक, महाराष्ट्र) से किया और पुष्पक विमान द्वारा हम्पी (कर्नाटक), लेपक्षी (आँध्रप्रदेश ) होते हुए श्रीलंका पहुंचा ।


आश्चर्य होता है जब हम आधुनिक तकनीक से देखते हैं कि नासिक, हम्पी, लेपक्षी और श्रीलंका बिलकुल एक सीधी लाइन में हैं । अर्थात ये पंचवटी से श्रीलंका जाने का सबसे छोटा रास्ता है ।


अब आप ये सोचिये उस समय Google Map नहीं था जो Shortest Way बता देता । फिर कैसे उस समय ये पता किया गया कि सबसे छोटा और सीधा मार्ग कौनसा है ? या मान भी लें कि चलो रामायण केवल एक महाकाव्य है जो वाल्मीकि ने लिखा तो फिर ये बताओ कि उस ज़माने में भी गूगल मैप नहीं था तो रामायण लिखने वाले वाल्मीकि को कैसे पता लगा कि पंचवटी से श्रीलंका का सीधा छोटा रास्ता कौनसा है ?


महाकाव्य में तो किन्ही भी स्थानों का ज़िक्र घटनाओं को बताने के लिए आ जाता। लेकिन क्यों वाल्मीकि जी ने सीता हरण के लिए केवल उन्ही स्थानों का ज़िक्र किया जो पुष्पक विमान का सबसे छोटा और बिलकुल सीधा रास्ता था ? ये ठीक वैसे ही है कि जैसे आज से 500 साल पहले गोस्वामी तुलसीदास जी को कैसे पता कि पृथ्वी से सूर्य की दूरी क्या है 


जुग सहस्त्र जोजन पर भानु = 152 मिलियन किमी - हनुमानचालीसा



1 Yug = 12000 years
1 Sahastra = 1000
1 Yojan = 8 Miles
Yug x Sahastra x Yojan par Bhanu
12000 x 1000 x 8 miles = 96,000,000 miles
1 mile = 1.6 kms
96,000,000 miles x 1.6 kms = 153,600,000 kms

जबकि नासा ने हाल ही कुछ वर्षों पूर्व में ही इस दूरी का पता लगाया है ।

अब आगे देखिये...  पंचवटी वो स्थान है जहां प्रभु श्री राम, माता जानकी और भ्राता लक्ष्मण वनवास के समय रह रहे थे । यहीं शूर्पणखा आई और लक्ष्मण से विवाह करने के लिए उपद्रव करने लगी । विवश होकर लक्ष्मण ने शूपर्णखा की नाक यानी नासिका काट दी । और आज इस स्थान को हम नासिक (महाराष्ट्र) के नाम से जानते हैं । आगे चलिए...


पुष्पक विमान में जाते हुए सीता ने नीचे देखा कि एक पर्वत के शिखर पर बैठे हुए कुछ वानर ऊपर की ओर कौतुहल से देख रहे हैं तो सीता ने अपने वस्त्र की कोर फाड़कर उसमें अपने कंगन बांधकर नीचे फ़ेंक दिए, ताकि राम को उन्हें ढूढ़ने में सहायता प्राप्त हो सके । जिस स्थान पर सीताजी ने उन वानरों को ये आभूषण फेंके वो स्थान था 'ऋष्यमूक पर्वत' जो आज के हम्पी (कर्नाटक) में स्थित है ।


इसके बाद, वृद्ध गीधराज जटायु ने रोती हुई सीता को देखा, देखा कि कोई राक्षस किसी स्त्री को बलात अपने विमान में लेके जा रहा है । जटायु ने सीता को छुड़ाने के लिए रावण से युद्ध किया । रावण ने तलवार से जटायु के पंख काट दिए । इसके बाद जब राम और लक्ष्मण सीता को ढूंढते हुए पहुंचे तो उन्होंने दूर से ही जटायु को सबसे पहला सम्बोधन 'हे पक्षी' कहते हुए किया और उस जगह का नाम दक्षिण भाषा में 'लेपक्षी' (आंधप्रदेश) है ।


अब क्या समझ आया आपको ? पंचवटी---हम्पी---लेपक्षी---श्रीलंका । सीधा रास्ता । सबसे छोटा रास्ता ।
अपने ज्ञान-विज्ञान, संस्कृति को भूल चुके भारतबन्धुओं रामायण कोई मायथोलोजी नहीं है । ये महर्षि वाल्मीकि द्वारा लिखा गया सत्य इतिहास है । जिसके समस्त वैज्ञानिक प्रमाण आज उपलब्ध हैं ।

इसलिए जब भी कोई हमारे इतिहास, संस्कृति, साहित्य को मायथोलोजी कहकर लोगो को भ्रमित करने का या खुद को विद्वान दिखाने का प्रयास करे तो उसको पकड़कर बिठा लेना और उससे इन सवालों के जवाब पूछना । विश्वास करो एक का भी जवाब नहीं दे पायेगा ।


अब इस सबमे आपकी ज़िम्मेदारी क्या है ?


आपके हिस्से की ज़िम्मेदारी ये है कि अब जब टीवी पर रामायण देखें तो ये ना सोचें कि कथा चल रही है बल्कि निरंतर ये ध्यान रखें कि ये हमारा इतिहास चल रहा है । इस दृष्टि से रामायण देखें और समझें । विशेष आवश्यक ये है कि यही दृष्टि हमारे बच्चों को दें, बच्चों को ये बात 'बोलकर' कहें कि 'बच्चो ये कथा कहानी नहीं है, ये हमारा इतिहास है, जिसको मिटाने की कोशिश की गई है ।


🙏 ।। जै श्रीराम ।। 🙏



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Wednesday 1 April 2020

चौदह वर्ष के वनवास के दौरान भगवान श्रीराम कहाँ कहाँ रहे ?

🙏 ।। जै श्रीराम ।। 🙏

चौदह वर्ष के वनवास के दौरान भगवान श्रीराम कहाँ कहाँ रहे ?


प्रभु श्रीराम को 14 वर्ष का वनवास हुआ। इस वनवास काल में श्रीराम ने कई ऋषि-मुनियों से शिक्षा और विद्या ग्रहण की, संपूर्ण भारत को उन्होंने एक ही विचारधारा के सूत्र में बांधा, लेकिन इस दौरान उनके साथ कुछ ऐसा भी घटा जिसने उनके जीवन को बदल कर रख दिया।

जाने-माने इतिहासकार और पुरातत्वशास्त्री अनुसंधानकर्ता डॉ. राम अवतार ने श्रीराम और सीता के जीवन की घटनाओं से जुड़े ऐसे 200 से भी अधिक स्थानों का पता लगाया है, जहां आज भी तत्संबंधी स्मारक स्थल विद्यमान हैं, जहां श्रीराम और सीता रुके या रहे थे। वहां के स्मारकों, भित्तिचित्रों, गुफाओं आदि स्थानों के समय-काल की जांच-पड़ताल वैज्ञानिक तरीकों से की। आओ जानते हैं कुछ प्रमुख स्थानों के बारे में;

1. श्रृंगवेरपुर: - राम को जब वनवास हुआ तो वाल्मीकि रामायण और शोधकर्ताओं के अनुसार वे सबसे पहले तमसा नदी पहुंचे, जो अयोध्या से 20 किमी दूर है। इसके बाद उन्होंने गोमती नदी पार की और प्रयागराज (इलाहाबाद) से 20-22 किलोमीटर दूर वे श्रृंगवेरपुर पहुंचे, जो निषादराज गुह का राज्य था। यहीं पर गंगा के तट पर उन्होंने केवट से गंगा पार करने को कहा था।

2. सिंगरौर: - इलाहाबाद से लगभग 35.2 किमी उत्तर-पश्चिम की ओर स्थित ‘सिंगरौर’ नामक स्थान ही प्राचीन समय में श्रृंगवेरपुर नाम से परिज्ञात था। रामायण में इस नगर का उल्लेख आता है। यह नगर गंगा घाटी के तट पर स्थित था। महाभारत में इसे ‘तीर्थस्थल’ कहा गया है।

3. कुरई: - इलाहाबाद जिले में ही कुरई नामक एक स्थान है, जो सिंगरौर के निकट गंगा नदी के तट पर स्थित है। गंगा के उस पार सिंगरौर तो इस पार कुरई। सिंगरौर में गंगा पार करने के पश्चात श्रीराम इसी स्थान पर उतरे थे।

इस ग्राम में एक छोटा-सा मंदिर है, जो स्थानीय लोकश्रुति के अनुसार उसी स्थान पर है, जहां गंगा को पार करने के पश्चात राम, लक्ष्मण और सीताजी ने कुछ देर विश्राम किया था।

4. चित्रकूट के घाट पर: - कुरई से आगे चलकर श्रीराम अपने भाई लक्ष्मण और पत्नी सहित प्रयाग पहुंचे थे। प्रयाग को वर्तमान में इलाहाबाद कहा जाता है। यहां गंगा-जमुना का संगम स्थल है। हिन्दुओं का यह सबसे बड़ा तीर्थस्थान है। प्रभु श्रीराम ने संगम के समीप यमुना नदी को पार किया और फिर पहुंच गए चित्रकूट। यहां स्थित स्मारकों में शामिल हैं, वाल्मीकि आश्रम, मांडव्य आश्रम, भरतकूप इत्यादि।

चित्रकूट में श्रीराम के दुर्लभ प्रमाण,,चित्रकूट वह स्थान है, जहां राम को मनाने के लिए भरत अपनी सेना के साथ पहुंचते हैं। तब जब दशरथ का देहांत हो जाता है। भारत यहां से राम की चरण पादुका ले जाकर उनकी चरण पादुका रखकर राज्य करते हैं।

5. अत्रि ऋषि का आश्रम: - चित्रकूट के पास ही सतना मध्यप्रदेश स्थित अत्रि ऋषि का आश्रम था। महर्षि अत्रि चित्रकूट के तपोवन में रहा करते थे। वहां श्रीराम ने कुछ वक्त बिताया।

अत्रि के आश्रम के आस-पास राक्षसों का समूह रहता था। अत्रि, उनके भक्तगण व माता अनुसूइया उन राक्षसों से भयभीत रहते थे। भगवान श्रीराम ने उन राक्षसों का वध किया। वाल्मीकि रामायण के अयोध्या कांड में इसका वर्णन मिलता है।

प्रातःकाल जब राम आश्रम से विदा होने लगे तो अत्रि ऋषि उन्हें विदा करते हुए बोले, ‘हे राघव! इन वनों में भयंकर राक्षस तथा सर्प निवास करते हैं, जो मनुष्यों को नाना प्रकार के कष्ट देते हैं। इनके कारण अनेक तपस्वियों को असमय ही काल का ग्रास बनना पड़ा है। मैं चाहता हूं, तुम इनका विनाश करके तपस्वियों की रक्षा करो।’

राम ने महर्षि की आज्ञा को शिरोधार्य कर उपद्रवी राक्षसों तथा मनुष्य का प्राणांत करने वाले भयानक सर्पों को नष्ट करने का वचन देखर सीता तथा लक्ष्मण के साथ आगे के लिए प्रस्थान किया।

6. दंडकारण्य: - अत्रि ऋषि के आश्रम में कुछ दिन रुकने के बाद श्रीराम ने मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ के घने जंगलों को अपना आश्रय स्थल बनाया। यह जंगल क्षेत्र था दंडकारण्य। ‘अत्रि-आश्रम’ से ‘दंडकारण्य’ आरंभ हो जाता है। छत्तीसगढ़ के कुछ हिस्सों पर राम के नाना और कुछ पर बाणासुर का राज्य था। यहां के नदियों, पहाड़ों, सरोवरों एवं गुफाओं में राम के रहने के सबूतों की भरमार है। यहीं पर राम ने अपना वनवास काटा था। यहां वे लगभग 10 वर्षों से भी अधिक समय तक रहे थे।

‘अत्रि-आश्रम’ से भगवान राम मध्यप्रदेश के सतना पहुंचे, जहां ‘रामवन’ हैं। मध्यप्रदेश एवं छत्तीसगढ़ क्षेत्रों में नर्मदा व महानदी नदियों के किनारे 10 वर्षों तक उन्होंने कई ऋषि आश्रमों का भ्रमण किया। दंडकारण्य क्षेत्र तथा सतना के आगे वे विराध सरभंग एवं सुतीक्ष्ण मुनि आश्रमों में गए। बाद में सतीक्ष्ण आश्रम वापस आए। पन्ना, रायपुर, बस्तर और जगदलपुर में कई स्मारक विद्यमान हैं। उदाहरणत: मांडव्य आश्रम, श्रृंगी आश्रम, राम-लक्ष्मण मंदिर आदि।

शहडोल (अमरकंटक): - राम वहां से आधुनिक जबलपुर, शहडोल (अमरकंटक) गए होंगे। शहडोल से पूर्वोत्तर की ओर सरगुजा क्षेत्र है। यहां एक पर्वत का नाम ‘रामगढ़’ है। 30 फीट की ऊंचाई से एक झरना जिस कुंड में गिरता है, उसे ‘सीता कुंड’ कहा जाता है। यहां वशिष्ठ गुफा है। दो गुफाओं के नाम ‘लक्ष्मण बोंगरा’ और ‘सीता बोंगरा’ हैं। शहडोल से दक्षिण-पूर्व की ओर बिलासपुर के आसपास छत्तीसगढ़ है।

वर्तमान में करीब 92,300 वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल में फैले इस इलाके के पश्चिम में अबूझमाड़ पहाड़ियां तथा पूर्व में इसकी सीमा पर पूर्वी घाट शामिल हैं। दंडकारण्य में छत्तीसगढ़, ओडिशा एवं आंध्रप्रदेश राज्यों के हिस्से शामिल हैं। इसका विस्तार उत्तर से दक्षिण तक करीब 320 किमी तथा पूर्व से पश्चिम तक लगभग 480 किलोमीटर है।

यह क्षेत्र आजकल दंतेवाड़ा के नाम से जाना जाता है। यहां वर्तमान में गोंड जाति निवास करती है तथा समूचा दंडकारण्य अब नक्सलवाद की चपेट में है।

इसी दंडकारण्य का ही हिस्सा है आंध्रप्रदेश का एक शहर भद्राचलम। गोदावरी नदी के तट पर बसा यह शहर सीता-रामचंद्र मंदिर के लिए प्रसिद्ध है। यह मंदिर भद्रगिरि पर्वत पर है। कहा जाता है कि श्रीराम ने अपने वनवास के दौरान कुछ दिन इस भद्रगिरि पर्वत पर ही बिताए थे।

स्थानीय मान्यता के मुताबिक दंडकारण्य के आकाश में ही रावण और जटायु का युद्ध हुआ था और जटायु के कुछ अंग दंडकारण्य में आ गिरे थे। ऐसा माना जाता है कि दुनियाभर में सिर्फ यहीं पर जटायु का एकमात्र मंदिर है।

दंडकारण्य क्षे‍त्र की चर्चा पुराणों में विस्तार से मिलती है। इस क्षेत्र की उत्पत्ति कथा महर्षि अगस्त्य मुनि से जुड़ी हुई है। यहीं पर उनका महाराष्ट्र के नासिक के अलावा एक आश्रम था।

7. पंचवटी, नासिक: - दण्डकारण्य में मुनियों के आश्रमों में रहने के बाद श्रीराम कई नदियों, तालाबों, पर्वतों और वनों को पार करने के पश्चात नासिक में अगस्त्य मुनि के आश्रम गए। मुनि का आश्रम नासिक के पंचवटी क्षेत्र में था। त्रेतायुग में लक्ष्मण व सीता सहित श्रीरामजी ने वनवास का कुछ समय यहां बिताया।

उस काल में पंचवटी जनस्थान या दंडक वन के अंतर्गत आता था। पंचवटी या नासिक से गोदावरी का उद्गम स्थान त्र्यंम्बकेश्वर लगभग 32 किमी दूर है। वर्तमान में पंचवटी भारत के महाराष्ट्र के नासिक में गोदावरी नदी के किनारे स्थित विख्यात धार्मिक तीर्थस्थान है।

अगस्त्य मुनि ने श्रीराम को अग्निशाला में बनाए गए शस्त्र भेंट किए। नासिक में श्रीराम पंचवटी में रहे और गोदावरी के तट पर स्नान-ध्यान किया। नासिक में गोदावरी के तट पर पांच वृक्षों का स्थान पंचवटी कहा जाता है। ये पांच वृक्ष थे- पीपल, बरगद, आंवला, बेल तथा अशोक वट। यहीं पर सीता माता की गुफा के पास पांच प्राचीन वृक्ष हैं जिन्हें पंचवट के नाम से जाना जाता है। माना जाता है कि इन वृक्षों को राम-सीमा और लक्ष्मण ने अपने हाथों से लगाया था।

यहीं पर लक्ष्मण ने शूर्पणखा की नाक काटी थी। राम-लक्ष्मण ने खर व दूषण के साथ युद्ध किया था। यहां पर मारीच वध स्थल का स्मारक भी अस्तित्व में है। नासिक क्षेत्र स्मारकों से भरा पड़ा है, जैसे कि सीता सरोवर, राम कुंड, त्र्यम्बकेश्वर आदि। यहां श्रीराम का बनाया हुआ एक मंदिर खंडहर रूप में विद्यमान है।

मरीच का वध पंचवटी के निकट ही मृगव्याधेश्वर में हुआ था। गिद्धराज जटायु से श्रीराम की मैत्री भी यहीं हुई थी। वाल्मीकि रामायण, अरण्यकांड में पंचवटी का मनोहर वर्णन मिलता है।

8. सीताहरण का स्थान सर्वतीर्थ: - नासिक क्षेत्र में शूर्पणखा, मारीच और खर व दूषण के वध के बाद ही रावण ने सीता का हरण किया और जटायु का भी वध किया जिसकी स्मृति नासिक से 56 किमी दूर ताकेड गांव में ‘सर्वतीर्थ’ नामक स्थान पर आज भी संरक्षित है।

जटायु की मृत्यु सर्वतीर्थ नाम के स्थान पर हुई, जो नासिक जिले के इगतपुरी तहसील के ताकेड गांव में मौजूद है। इस स्थान को सर्वतीर्थ इसलिए कहा गया, क्योंकि यहीं पर मरणासन्न जटायु ने सीता माता के बारे में बताया। रामजी ने यहां जटायु का अंतिम संस्कार करके पिता और जटायु का श्राद्ध-तर्पण किया था। इसी तीर्थ पर लक्ष्मण रेखा थी।

9.पर्णशाला, भद्राचलम: - पर्णशाला आंध्रप्रदेश में खम्माम जिले के भद्राचलम में स्थित है। रामालय से लगभग 1 घंटे की दूरी पर स्थित पर्णशाला को ‘पनशाला’ या ‘पनसाला’ भी कहते हैं। हिन्दुओं के प्रमुख धार्मिक स्थलों में से यह एक है। पर्णशाला गोदावरी नदी के तट पर स्थित है। मान्यता है कि यही वह स्थान है, जहां से सीताजी का हरण हुआ था। हालांकि कुछ मानते हैं कि इस स्थान पर रावण ने अपना विमान उतारा था।

इस स्थल से ही रावण ने सीता को पुष्पक विमान में बिठाया था यानी सीताजी ने धरती यहां छोड़ी थी। इसी से वास्तविक हरण का स्थल यह माना जाता है। यहां पर राम-सीता का प्राचीन मंदिर है।

10. सीता की खोज तुंगभद्रा तथा कावेरी नदियों के क्षेत्र: - सर्वतीर्थ जहां जटायु का वध हुआ था, वह स्थान सीता की खोज का प्रथम स्थान था। उसके बाद श्रीराम-लक्ष्मण तुंगभद्रा तथा कावेरी नदियों के क्षेत्र में पहुंच गए। तुंगभद्रा एवं कावेरी नदी क्षेत्रों के अनेक स्थलों पर वे सीता की खोज में गए।

11. शबरी का आश्रम पम्पा सरोवर: - तुंगभद्रा और कावेरी नदी को पार करते हुए राम और लक्ष्‍मण चले सीता की खोज में। जटायु और कबंध से मिलने के पश्‍चात वे ऋष्यमूक पर्वत पहुंचे। रास्ते में वे पम्पा नदी के पास शबरी आश्रम भी गए, जो आजकल केरल में स्थित है।

पम्पा नदी भारत के केरल राज्य की तीसरी सबसे बड़ी नदी है। इसे ‘पम्बा’ नाम से भी जाना जाता है। ‘पम्पा’ तुंगभद्रा नदी का पुराना नाम है। श्रावणकौर रजवाड़े की सबसे लंबी नदी है। इसी नदी के किनारे पर हम्पी बसा हुआ है। यह स्थान बेर के वृक्षों के लिए आज भी प्रसिद्ध है। पौराणिक ग्रंथ ‘रामायण’ में भी हम्पी का उल्लेख वानर राज्य किष्किंधा की राजधानी के तौर पर किया गया है।

12. हनुमान से भेंट: - मलय पर्वत और चंदन वनों को पार करते हुए वे ऋष्यमूक पर्वत की ओर बढ़े। यहां उन्होंने हनुमान और सुग्रीव से भेंट की, सीता के आभूषणों को देखा और श्रीराम ने बाली का वध किया।

ऋष्यमूक पर्वत वाल्मीकि रामायण में वर्णित वानरों की राजधानी किष्किंधा के निकट स्थित था। इसी पर्वत पर श्रीराम की हनुमान से भेंट हुई थी। बाद में हनुमान ने राम और सुग्रीव की भेंट करवाई, जो एक अटूट मित्रता बन गई। जब महाबली बाली अपने भाई सुग्रीव को मारकर किष्किंधा से भागा तो वह ऋष्यमूक पर्वत पर ही आकर छिपकर रहने लगा था।

ऋष्यमूक पर्वत तथा किष्किंधा नगर कर्नाटक के हम्पी, जिला बेल्लारी में स्थित है। विरुपाक्ष मंदिर के पास से ऋष्यमूक पर्वत तक के लिए मार्ग जाता है। यहां तुंगभद्रा नदी (पम्पा) धनुष के आकार में बहती है। तुंगभद्रा नदी में पौराणिक चक्रतीर्थ माना गया है। पास ही पहाड़ी के नीचे श्रीराम मंदिर है। पास की पहाड़ी को ‘मतंग पर्वत’ माना जाता है। इसी पर्वत पर मतंग ऋषि का आश्रम था।

13. कोडीकरई: - हनुमान और सुग्रीव से मिलने के बाद श्रीराम ने अपनी सेना का गठन किया और लंका की ओर चल पड़े। मलय पर्वत, चंदन वन, अनेक नदियों, झरनों तथा वन-वाटिकाओं को पार करके राम और उनकी सेना ने समुद्र की ओर प्रस्थान किया। श्रीराम ने पहले अपनी सेना को कोडीकरई में एकत्रित किया।

तमिलनाडु की एक लंबी तटरेखा है, जो लगभग 1,000 किमी तक विस्‍तारित है। कोडीकरई समुद्र तट वेलांकनी के दक्षिण में स्थित है, जो पूर्व में बंगाल की खाड़ी और दक्षिण में पाल्‍क स्‍ट्रेट से घिरा हुआ है।

लेकिन राम की सेना ने उस स्थान के सर्वेक्षण के बाद जाना कि यहां से समुद्र को पार नहीं किया जा सकता और यह स्थान पुल बनाने के लिए उचित भी नहीं है, तब श्रीराम की सेना ने रामेश्वरम की ओर कूच किया।

14.रामेश्‍वरम: - रामेश्‍वरम समुद्र तट एक शांत समुद्र तट है और यहां का छिछला पानी तैरने और सन बेदिंग के लिए आदर्श है। रामेश्‍वरम प्रसिद्ध हिन्दू तीर्थ केंद्र है।

15.धनुषकोडी:  - वाल्मीकि के अनुसार तीन दिन की खोजबीन के बाद श्रीराम ने रामेश्वरम के आगे समुद्र में वह स्थान ढूंढ़ निकाला, जहां से आसानी से श्रीलंका पहुंचा जा सकता हो। उन्होंने नल और नील की मदद से उक्त स्थान से लंका तक का पुनर्निर्माण करने का फैसला लिया।

छेदुकराई तथा रामेश्वरम के इर्द-गिर्द इस घटना से संबंधित अनेक स्मृतिचिह्न अभी भी मौजूद हैं। नाविक रामेश्वरम में धनुषकोडी नामक स्थान से यात्रियों को रामसेतु के अवशेषों को दिखाने ले जाते हैं।

धनुषकोडी भारत के तमिलनाडु राज्‍य के पूर्वी तट पर रामेश्वरम द्वीप के दक्षिणी किनारे पर स्थित एक गांव है। धनुषकोडी पंबन के दक्षिण-पूर्व में स्थित है। धनुषकोडी श्रीलंका में तलैमन्‍नार से करीब 18 मील पश्‍चिम में है।

इसका नाम धनुषकोडी इसलिए है कि यहां से श्रीलंका तक वानर सेना के माध्यम से नल और नील ने जो पुल (रामसेतु) बनाया था उसका आकार मार्ग धनुष के समान ही है। इन पूरे इलाकों को मन्नार समुद्री क्षेत्र के अंतर्गत माना जाता है। धनुषकोडी ही भारत और श्रीलंका के बीच एकमात्र स्‍थलीय सीमा है, जहां समुद्र नदी की गहराई जितना है जिसमें कहीं-कहीं भूमि नजर आती है।

दरअसल, यहां एक पुल डूबा पड़ा है। 1860 में इसकी स्पष्ट पहचान हुई और इसे हटाने के कई प्रयास किए गए। अंग्रेज इसे एडम ब्रिज कहने लगे तो स्थानीय लोगों में भी यह नाम प्रचलित हो गया। अंग्रेजों ने कभी इस पुल को क्षतिग्रस्त नहीं किया लेकिन आजाद भारत में पहले रेल ट्रैक निर्माण के चक्कर में बाद में बंदरगाह बनाने के चलते इस पुल को क्षतिग्रस्त किया गया।

30मील लंबा और सवा मील चौड़ा यह रामसेतु 5 से 30 फुट तक पानी में डूबा है। श्रीलंका सरकार इस डूबे हुए पुल (पम्बन से मन्नार) के ऊपर भू-मार्ग का निर्माण कराना चाहती है जबकि भारत सरकार नौवहन हेतु उसे तोड़ना चाहती है। इस कार्य को भारत सरकार ने सेतुसमुद्रम प्रोजेक्ट का नाम दिया है। श्रीलंका के ऊर्जा मंत्री श्रीजयसूर्या ने इस डूबे हुए रामसेतु पर भारत और श्रीलंका के बीच भू-मार्ग का निर्माण कराने का प्रस्ताव रखा था।

16.’नुवारा एलिया’ पर्वत श्रृंखला: --वाल्मिकी रामायण अनुसार श्रीलंका के मध्य में रावण का महल था। ‘नुवारा एलिया’ पहाड़ियों से लगभग 90 किलोमीटर दूर बांद्रवेला की तरफ मध्य लंका की ऊंची पहाड़ियों के बीचोबीच सुरंगों तथा गुफाओं के भंवरजाल मिलते हैं। यहां ऐसे कई पुरातात्विक अवशेष मिलते हैं जिनकी कार्बन डेटिंग से इनका काल निकाला गया है।

श्रीलंका में नुआरा एलिया पहाड़ियों के आसपास स्थित रावण फॉल, रावण गुफाएं, अशोक वाटिका, खंडहर हो चुके विभीषण के महल आदि की पुरातात्विक जांच से इनके रामायण काल के होने की पुष्टि होती है। आजकल भी इन स्थानों की भौगोलिक विशेषताएं, जीव, वनस्पति तथा स्मारक आदि बिलकुल वैसे ही हैं जैसे कि रामायण में वर्णित किए गए हैं।

🙏 ।। जै श्रीराम ।। 🙏


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