Saturday 26 December 2020

खुशहाल कौन ?

 


एक पुराना ग्रुप कॉलेज छोड़ने के बहुत दिनों बाद मिला। 

वे सभी अच्छे कैरियर के साथ खूब पैसे कमा रहे थे। 

वे अपने सबसे फेवरेट प्रोफेसर के घर जाकर मिले।

प्रोफेसर साहब उनके काम के बारे में पूछने लगे। धीरे-धीरे बात लाइफ में बढ़ती स्ट्रेस और काम के प्रेशर पर आ गयी। इस मुद्दे पर सभी एक मत थे कि, भले वे अब आर्थिक रूप से बहुत मजबूत हों पर उनकी लाइफ में अब वो मजा नहीं रह गया जो पहले हुआ करता था। 

प्रोफेसर साहब बड़े ध्यान से उनकी बातें सुन रहे थे,  वे अचानक ही उठे और थोड़ी देर बाद किचन से लौटे और बोले, 

"डीयर स्टूडेंट्स, मैं आपके लिए गरमा-गरम कॉफ़ी बना कर लाया हूँ , लेकिन प्लीज आप सब किचन में जाकर अपने-अपने लिए कप्स लेते आइये।"

लड़के तेजी से अंदर गए, वहाँ कई तरह के कप रखे हुए थे, सभी अपने लिए अच्छा से अच्छा कप उठाने में लग गये, किसी ने क्रिस्टल का शानदार कप उठाया तो किसी ने पोर्सिलेन का कप सेलेक्ट किया, तो किसी ने शीशे का कप उठाया। 

सभी के हाथों में कॉफी आ गयी । तो प्रोफ़ेसर साहब बोले, 

"अगर आपने ध्यान दिया हो तो, जो कप दिखने में अच्छे और महंगे थे। आपने उन्हें ही चुना और साधारण दिखने वाले कप्स की तरफ ध्यान नहीं दिया। 

जहाँ एक तरफ अपने लिए सबसे अच्छे की चाह रखना एक नॉर्मल बात है। वहीँ दूसरी तरफ ये हमारी लाइफ में प्रोब्लम्स और स्ट्रेस लेकर आता है।

फ्रेंड्स, ये तो पक्का है कि कप, कॉफी की क्वालिटी में कोई बदलाव नहीं लाता। 

ये तो बस एक जरिया है जिसके माध्यम से आप कॉफी पीते है। 

असल में जो आपको चाहिए था। वो बस कॉफ़ी थी, कप नहीं, 

पर फिर भी आप सब सबसे अच्छे कप के पीछे ही गए 
और अपना लेने के बाद दूसरों के कप निहारने लगे।" 

अब इस बात को ध्यान से सुनिये ... 

"ये लाइफ कॉफ़ी की तरह है ; 
हमारी नौकरी, पैसा, पोजीशन, कप की तरह हैं। 
ये बस लाइफ जीने के साधन हैं, खुद लाइफ नहीं ! 
और हमारे पास कौन सा कप है। 
ये न हमारी लाइफ को डिफाइन करता है और ना ही उसे चेंज करता है। 

इसीलिए कॉफी की चिंता करिये कप की नहीं।" 

"दुनिया के सबसे खुशहाल लोग वो नहीं होते , 
जिनके पास सबकुछ सबसे बढ़िया होता है, 

खुशहाल वे होते हैं, जिनके पास जो होता है । 
बस उसका सबसे अच्छे से यूज़ करते हैं, 

एन्जॉय करते हैं और भरपूर जीवन जीते हैं!

प्रसन्न रहने व औरों को प्रसन्न रखने का मूल मंत्र:- 

“जो कुछ भी प्रभु ने हमें दिया है वह सर्वोत्तम है”

(साभार -  अनजान, व्हाट्सएप से प्राप्त)

Friday 27 November 2020

वीर सावरकर

 


एक कल्पना कीजिए... तीस वर्ष का पति जेल की सलाखों के भीतर खड़ा है और बाहर उसकी वह युवा पत्नी खड़ी है, जिसका बच्चा हाल ही में मृत हुआ है...

इस बात की पूरी संभावना है कि अब शायद इस जन्म में इन पति-पत्नी की भेंट न हो. ऐसे कठिन समय पर इन दोनों ने क्या बातचीत की होगी. कल्पना मात्र से आप सिहर उठे ना?? जी हाँ!!! मैं बात कर रहा हूँ भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के सबसे चमकते सितारे विनायक दामोदर सावरकर की. यह परिस्थिति उनके जीवन में आई थी, जब अंग्रेजों ने उन्हें कालापानी  (Andaman Cellular Jail) की कठोरतम सजा के लिए अंडमान जेल भेजने का निर्णय लिया और उनकी पत्नी उनसे मिलने जेल में आईं. 

मजबूत ह्रदय वाले वीर सावरकर (Vinayak Damodar Savarkar) ने अपनी पत्नी से एक ही बात कही... – 

तिनके-तीलियाँ बीनना और बटोरना तथा उससे एक घर बनाकर उसमें बाल-बच्चों का पालन-पोषण करना... यदि इसी को परिवार और कर्तव्य कहते हैं तो ऐसा संसार तो कौए और चिड़िया भी बसाते हैं. अपने घर-परिवार-बच्चों के लिए तो सभी काम करते हैं. मैंने अपने देश को अपना परिवार माना है, इसका गर्व कीजिए. इस दुनिया में कुछ भी बोए बिना कुछ उगता नहीं है. धरती से ज्वार की फसल उगानी हो तो उसके कुछ दानों को जमीन में गड़ना ही होता है. वह बीच जमीन में, खेत में जाकर मिलते हैं तभी अगली ज्वार की फसल आती है. यदि हिन्दुस्तान में अच्छे घर निर्माण करना है तो हमें अपना घर कुर्बान करना चाहिए. कोई न कोई मकान ध्वस्त होकर मिट्टी में न मिलेगा, तब तक नए मकान का नवनिर्माण कैसे होगा...”

कल्पना करो कि हमने अपने ही हाथों अपने घर के चूल्हे फोड़ दिए हैं, अपने घर में आग लगा दी है. परन्तु आज का यही धुआँ कल भारत के प्रत्येक घर से स्वर्ण का धुआँ बनकर निकलेगा. 

यमुनाबाई, बुरा न मानें, मैंने तुम्हें एक ही जन्म में इतना कष्ट दिया है कि “यही पति मुझे जन्म-जन्मांतर तक मिले” ऐसा कैसे कह सकती हो...” यदि अगला जन्म मिला, तो हमारी भेंट होगी... अन्यथा यहीं से विदा लेता हूँ.... 

(उन दिनों यही माना जाता था, कि जिसे कालापानी की भयंकर सजा मिली वह वहाँ से जीवित वापस नहीं आएगा).

अब सोचिये, इस भीषण परिस्थिति में मात्र 25-26 वर्ष की उस युवा स्त्री ने अपने पति यानी वीर सावरकर से क्या कहा होगा?? यमुनाबाई (अर्थात भाऊराव चिपलूनकर की पुत्री) धीरे से नीचे बैठीं, और जाली में से अपने हाथ अंदर करके उन्होंने सावरकर के पैरों को स्पर्श किया. उन चरणों की धूल अपने मस्तक पर लगाई. सावरकर भी चौंक गए, अंदर से हिल गए... उन्होंने पूछा.... ये क्या करती हो?? 

अमर क्रांतिकारी की पत्नी ने कहा... “मैं यह चरण अपनी आँखों में बसा लेना चाहती हूँ, ताकि अगले जन्म में कहीं मुझसे चूक न हो जाए. अपने परिवार का पोषण और चिंता करने वाले मैंने बहुत देखे हैं, लेकिन समूचे भारतवर्ष को अपना परिवार मानने वाला व्यक्ति मेरा पति है... इसमें बुरा मानने वाली बात ही क्या है. यदि आप सत्यवान हैं, तो मैं सावित्री हूँ. मेरी तपस्या में इतना बल है, कि मैं यमराज से आपको वापस छीन लाऊँगी. आप चिंता न करें... अपने स्वास्थ्य का ध्यान रखें... हम इसी स्थान पर आपकी प्रतीक्षा कर रहे हैं...”.

क्या जबरदस्त ताकत है... उस युवावस्था में पति को कालापानी की सजा पर ले जाते समय, कितना हिम्मत भरा वार्तालाप है..

सचमुच, क्रान्ति की भावना कुछ स्वर्ग से तय होती है, कुछ संस्कारों से.

भारत माता की जय🙏🏻

Monday 21 September 2020

जाकी रही भावना जैसी . . . . .

 


♦  एक राजा को राज भोगते हुए काफी समय हो गया था । बाल भी सफ़ेद होने लगे थे । एक दिन उसने अपने दरबार में एक उत्सव रखा और अपने गुरुदेव एवं मित्र देश के राजाओं को भी सादर आमन्त्रित किया । उत्सव को रोचक बनाने के लिए राज्य की सुप्रसिद्ध नर्तकी को भी बुलाया गया ।

 ♦  राजा ने कुछ स्वर्ण मुद्रायें अपने गुरु जी को भी दीं, ताकि यदि वे चाहें तो नर्तकी के अच्छे गीत व नृत्य पर वे उसे पुरस्कृत कर सकें । सारी रात नृत्य चलता रहा । ब्रह्म मुहूर्त की बेला आयी । नर्तकी ने देखा कि मेरा तबले वाला ऊँघ रहा है, उसको जगाने के लिए नर्तकी ने एक दोहा पढ़ा -

बहु बीती, थोड़ी रही, पल पल गयी बिताय।

एक पलक के कारने, क्यों कलंक लग जाय।

♦ अब इस दोहे का अलग-अलग व्यक्तियों ने अपने अनुरुप अलग-अलग अर्थ निकाला । तबले वाला सतर्क होकर बजाने लगा । 

♦ जब यह बात गुरु जी ने सुनी तो  उन्होंने सारी मोहरें उस नर्तकी के सामने फैंक दीं । 

♦ वही दोहा नर्तकी ने फिर पढ़ा तो राजा की लड़की ने अपना नवलखा हार नर्तकी को भेंट कर दिया । 

♦ उसने फिर वही दोहा दोहराया तो राजा के पुत्र युवराज ने अपना मुकट उतारकर नर्तकी को समर्पित कर दिया । 

♦ नर्तकी फिर वही दोहा दोहराने लगी तो राजा ने कहा - "बस कर, एक दोहे से तुमने वैश्या होकर भी सबको लूट लिया है ।"

♦ जब यह बात राजा के गुरु ने सुनी तो गुरु के नेत्रों में आँसू आ गए और गुरु जी कहने लगे - "राजा ! इसको तू वैश्या मत कह, ये तो अब मेरी गुरु बन गयी है । इसने मेरी आँखें खोल दी हैं । यह कह रही है कि मैं सारी उम्र संयमपूर्वक भक्ति करता रहा और आखिरी समय में नर्तकी का मुज़रा देखकर अपनी साधना नष्ट करने यहाँ चला आया हूँ, भाई ! मैं तो चला ।" यह कहकर गुरु जी तो अपना कमण्डल उठाकर जंगल की ओर चल पड़े ।

♦ राजा की लड़की ने कहा - "पिता जी ! मैं जवान हो गयी हूँ । आप आँखें बन्द किए बैठे हैं, मेरी शादी नहीं कर रहे थे और आज रात मैंने आपके महावत के साथ भागकर अपना जीवन बर्बाद कर लेना था । लेकिन इस नर्तकी ने मुझे सुमति दी है कि जल्दबाजी मत कर कभी तो तेरी शादी होगी ही । क्यों अपने पिता को कलंकित करने पर तुली है ?"

♦ युवराज ने कहा - "पिता जी ! आप वृद्ध हो चले हैं, फिर भी मुझे राज नहीं दे रहे थे । मैंने आज रात ही आपके सिपाहियों से मिलकर आपका कत्ल करवा देना था । लेकिन इस नर्तकी ने समझाया कि पगले ! आज नहीं तो कल आखिर राज तो तुम्हें ही मिलना है, क्यों अपने पिता के खून का कलंक अपने सिर पर लेता है । धैर्य रख ।"

♦ जब ये सब बातें राजा ने सुनी तो राजा को भी आत्म ज्ञान हो गया । राजा के मन में वैराग्य आ गया । राजा ने तुरन्त फैसला लिया - "क्यों न मैं अभी युवराज का राजतिलक कर दूँ ।" फिर क्या था, उसी समय राजा ने युवराज का राजतिलक किया और अपनी पुत्री को कहा - "पुत्री ! दरबार में एक से एक राजकुमार आये हुए हैं । तुम अपनी इच्छा से किसी भी राजकुमार के गले में वरमाला डालकर पति रुप में चुन सकती हो ।" राजकुमारी ने ऐसा ही किया और राजा सब त्याग कर जंगल में गुरु की शरण में चला गया ।

♦ यह सब देखकर नर्तकी ने सोचा - "मेरे एक दोहे से इतने लोग सुधर गए, लेकिन मैं क्यूँ नहीं सुधर पायी ?" उसी समय नर्तकी में भी वैराग्य आ गया । उसने उसी समय निर्णय लिया कि आज से मैं अपना बुरा धंधा बन्द करती हूँ और कहा कि "हे प्रभु ! मेरे पापों से मुझे क्षमा करना । बस, आज से मैं सिर्फ तेरा नाम सुमिरन करुँगी ।"

♦ समझ आने की बात है, दुनिया बदलते देर नहीं लगती । एक दोहे की दो लाईनों से भी हृदय परिवर्तन हो सकता है । बस, केवल थोड़ा धैर्य रखकर चिन्तन करने की आवश्यकता है ।

प्रशंसा से पिघलना नहीं चाहिए, आलोचना से उबलना नहीं चाहिए । नि:स्वार्थ भाव से कर्म करते रहें । क्योंकि इस धरा का, इस धरा पर, सब धरा रह जायेगा ।

( Courtesy - WhatsApp forwarded message)

Monday 14 September 2020

"Carrying useless burdens"

 

One Sunday morning, a wealthy man sat in his balcony enjoying sunshine and his coffee when a little ant caught his eye which was going from one side to the other side of the balcony carrying a big leaf several times more than its size.

The man watched it for more than an hour. He saw that the ant faced many obstacles during its journey, paused, took a diversion and then continued towards destination.

At one point the tiny creature came across a crack in the floor. It paused for a little while, analyzed and then laid the huge leaf over the crack, walked over the leaf, picked the leaf on the other side then continued its journey.

The man was captivated by the cleverness of the ant, one of God’s tiniest creatures. The incident left the man in awe and forced him to contemplate over the miracle of Creation. It showed the Greatness of the Creator. 

In front of his eyes there was this tiny creature of God, lacking in size yet equipped with a brain to analyze, contemplate, reason, explore, discover and overcome.

A while later the man saw that the creature had reached its destination – a tiny hole in the floor which was entrance to its underground dwelling.

And it was at this point that the ant’s shortcoming that it shared with the man was revealed

How could the ant carry into the tiny hole the large leaf that it had managed to carefully bring to the destination? It simply couldn't ! So the tiny creature, after all the painstaking and hard work and exercising great skills, overcoming all the difficulties along the way, just left behind the large leaf and went home empty-handed.

The ant had not thought about the end before it began its challenging journey and in the end the large leaf was nothing more than a burden to it. 

The creature had no option, but to leave it behind to reach its destination. 

The man learned a great lesson that day.

That is the truth about our lives too.

We worry about our family, we worry about our job, we worry about how to earn more money, we worry about where we should live, what kind of vehicle to buy, what kind of dresses to wear, what gadgets to upgrade, only to abandon all these things when we reach our destination – 

We don’t realize in our life’s journey that these are just burdens that we are carrying with utmost care and fear of losing them, only to find that at the end they are useless and we can’t take them with us.....


🙏|| Jai Sri Radhe Krishan ||🙏

Friday 11 September 2020

धर्म एवम् पुण्य कार्य

 एक बार की बात है एक बहुत ही पुण्य व्यक्ति अपने परिवार सहित तीर्थ के लिए निकला .. कई कोस दूर जाने के बाद पूरे परिवार को प्यास लगने लगी , ज्येष्ठ का महीना था , आस पास कहीं पानी नहीं दिखाई पड़ रहा था ..  उसके बच्चे प्यास से ब्याकुल होने लगे .. समझ नहीं आ रहा था कि वो क्या करे ... अपने साथ लेकर चलने वाला पानी भी समाप्त हो चुका था !!

एक समय ऐसा आया कि उसे भगवान से प्रार्थना करनी पड़ी कि हे प्रभु अब आप ही कुछ करो मालिक ... इतने में उसे कुछ दूर पर एक साधू तप करता हुआ नजर आया..  व्यक्ति ने उस साधू से जाकर अपनी समस्या बताई ... साधू बोले की यहाँ से एक कोस दूर उत्तर की दिशा में एक छोटी दरिया बहती है जाओ जाकर वहां से पानी की प्यास बुझा लो ...

साधू की बात सुनकर उसे बड़ी प्रसन्नता हुयी और उसने साधू को धन्यवाद बोला .. पत्नी एवं बच्चो की स्थिति नाजुक होने के कारण वहीं रुकने के लिया बोला और खुद पानी लेने चला गया.. 

जब वो दरिया से पानी लेकर लौट रहा था तो उसे रास्ते में पांच व्यक्ति मिले जो अत्यंत प्यासे थे .. पुण्य आत्मा को उन पांचो व्यक्तियों की प्यास देखि नहीं गयी और अपना सारा पानी उन प्यासों को पिला दिया .. जब वो दोबारा पानी लेकर आ रहा था तो पांच अन्य व्यक्ति मिले जो उसी तरह प्यासे थे ... पुण्य आत्मा ने फिर अपना सारा पानी उनको पिला दिया ...

यही घटना बार बार हो रही थी ... और काफी समय बीत जाने के बाद जब वो नहीं आया तो साधू उसकी तरफ चल पड़ा .... बार बार उसके इस पुण्य कार्य को देखकर साधू बोला - " हे पुण्य आत्मा तुम बार बार अपना बाल्टी भरकर दरिया से लाते हो और किसी प्यासे के लिए ख़ाली कर देते हो ... इससे तुम्हे क्या लाभ मिला ...? पुण्य आत्मा ने बोला मुझे क्या मिला ? या क्या नहीं मिला इसके बारें में मैंने कभी नहीं सोचा .. पर मैंने अपना स्वार्थ छोड़कर अपना धर्म निभाया ..

साधू बोला - " ऐसे धर्म निभाने से क्या फ़ायदा जब तुम्हारे  अपने बच्चे और परिवार ही जीवित ना बचे ? तुम अपना धर्म ऐसे भी निभा सकते थे जैसे मैंने निभाया ..

पुण्य आत्मा ने पूछा - " कैसे महाराज ? 

साधू बोला - " मैंने तुम्हे दरिया से पानी लाकर देने के बजाय दरिया का रास्ता ही बता दिया ... 

तुम्हे भी उन सभी प्यासों को दरिया का रास्ता बता देना चाहिए था ... ताकि तुम्हारी भी प्यास मिट जाये और अन्य प्यासे लोगो की भी ... फिर किसी को अपनी बाल्टी ख़ाली करने की जरुरत ही नहीं ..."  

इतना कहकर साधू अंतर्ध्यान हो गया ...

पुण्य आत्मा को सब कुछ समझ आ गया की अपना पुण्य ख़ाली कर दुसरो को देने के बजाय , दुसरो को भी पुण्य अर्जित करने का रास्ता या विधि बताये ..

मित्रो - ये तत्व ज्ञान है ... अगर किसी के बारे में अच्छा सोचना है तो उसे उस परमात्मा से जोड़ दो ताकि उसे हमेशा के लिए लाभ मिले !!!

( Courtesy - WhatsApp forwarded message)

हलवा एवम् बादाम


एक दिन, मेरे पिता ने हलवे के 2 कटोरे बनाये और उन्हें मेज़ पर रख दिया। 
एक के ऊपर 2 बादाम थे, जबकि दूसरे कटोरे में हलवे के ऊपर कुछ नहीं था। फिर उन्होंने मुझे हलवे का कोई एक कटोरा चुनने के लिए कहा, क्योंकि उन दिनों तक हम गरीबों के घर बादाम आना मुश्किल था.... मैंने 2 बादाम वाले कटोरे को चुना!

मैं अपने बुद्धिमान विकल्प / निर्णय पर खुद को बधाई दे रहा था, और जल्दी जल्दी मुझे मिले 2 बादाम हलवा खा रहा था।

परंतु मेरे आश्चर्य का ठिकाना नही था, जब मैंने देखा कि की मेरे पिता वाले कटोरे के नीचे 4 बादाम छिपे थे!बहुत पछतावे के साथ, मैंने अपने निर्णय में जल्दबाजी करने के लिए खुद को डांटा।

मेरे पिता मुस्कुराए और मुझे यह याद रखना सिखाया कि, आपकी आँखें जो देखती हैं वह हरदम सच नहीं हो सकता, उन्होंने कहा कि यदि आप स्वार्थ की आदत की, अपनी आदत बना लेते हैं तो आप जीत कर भी हार जाएंगे।

अगले दिन, मेरे पिता ने फिर से हलवे के 2 कटोरे पकाए और टेबल पर रक्खे एक कटोरा के शीर्ष पर 2 बादाम और दूसरा कटोरा जिसके ऊपर कोई बादाम नहीं था। फिर से उन्होंने मुझे अपने लिए कटोरा चुनने को कहा। इस बार मुझे कल का संदेश याद था, इसलिए मैंने शीर्ष पर बिना किसी बादाम कटोरी को चुना।

परंतु मेरे आश्चर्य करने के लिए इस बार इस कटोरे के नीचे एक भी बादाम नहीं छिपा था!  फिर से, मेरे पिता ने मुस्कुराते हुए मुझसे कहा, "मेरे बच्चे, आपको हमेशा अनुभवों पर भरोसा नहीं करना चाहिए, क्योंकि कभी-कभी, जीवन आपको धोखा दे सकता है या आप पर चालें खेल सकता है स्थितियों से कभी भी ज्यादा परेशान या दुखी न हों, बस अनुभव को एक सबक अनुभव के रूप में समझें, जो किसी भी पाठ्यपुस्तकों से प्राप्त नहीं किया जा सकता है।

तीसरे दिन, मेरे पिता ने फिर से हलवे के 2 कटोरे पकाए। पहले 2 दिन की ही तरह, एक कटोरे के ऊपर 2 बादाम, और दूसरे के शीर्ष पर कोई बादाम नहीं। मुझे उस कटोरे को चुनने के लिए कहा जो मुझे चाहिए था।

लेकिन इस बार, मैंने अपने पिता से कहा, पिताजी, आप पहले चुनें, आप परिवार के मुखिया हैं और आप परिवार में सबसे ज्यादा योगदान देते हैं । आप मेरे लिए जो अच्छा होगा वही चुनेंगे।

मेरे पिता मेरे लिए खुश थे।

उन्होंने शीर्ष पर 2 बादाम के साथ कटोरा चुना, लेकिन जैसा कि मैंने अपने  कटोरे का हलवा खाया!  कटोरे के हलवे के एकदम नीचे 8 बादाम और थे।

मेरे पिता मुस्कुराए और मेरी आँखों में प्यार से देखते हुए, उन्होंने कहा मेरे बच्चे, तुम्हें याद रखना होगा कि, जब तुम भगवान पर सब कुछ छोड़ देते हो, तो वे हमेशा तुम्हारे लिए सर्वोत्तम का चयन करेंगे

और जब तुम दूसरों की भलाई के लिए सोचते हो, अच्छी चीजें स्वाभाविक तौर पर आपके साथ भी हमेशा होती रहेंगी ।

शिक्षा:  बड़ों का सम्मान करते हुए उन्हें पहले मौका व स्थान देवें, बड़ों का आदर-सम्मान करोगे तो कभी भी खाली हाथ नही लौटोगे ।   

"अनुभव व  दृष्टि का ज्ञान व विवेक के साथ सामंजस्य हो जाये बस यही सार्थक जीवन है।"


(साभार -  अनजान, व्हाट्सएप से प्राप्त)

Sunday 30 August 2020

रंभा - श्री शुकदेव जी संवाद !


रंभा नामक एक अतीव सुंदरी (अप्सरा) श्री शुकदेव जी के रूपलावणय को देख मुग्ध हो गयी और श्रीशुकदेव जी को लुभाने पहुंची। श्री शुकदेव जी सहज विरागी थे। बचपन में ही वह वन चले गए थे। उन्होंने ही राजा परीक्षित को भागवत पुराण सुनाया था। वे महर्षि वेदव्यास के अयोनिज पुत्र थे और बारह वर्षों तक माता के गर्भ में रहे। 

श्रीकृष्ण के यह आश्वासन देने पर कि उन पर माया का प्रभाव नहीं पड़ेगा, उन्होंने जन्म लिया। उन्हें गर्भ में ही उन्हें वेद, उपनिषद, दर्शन और पुराण आदि का ज्ञान हो गया था। कम अवस्था में ही वह ब्रह्मलीन हो गए थे।


रंभा ने उन्हें देखा, तो वह मुग्ध हो गई और उनसे प्रणय निवेदन किया। शुकदेव ने उसकी ओर ध्यान नहीं दिया। रंभा उनका ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने में जुट गई। जब वह बहुत कोशिश कर चुकी, तो शुकदेव ने पूछा, देवी, आप मेरा ध्यान क्यों आकर्षित कर रही हैं। रंभा ने कहा, ताकि हम जीवन का छक कर भोग कर सकें। शुकदेव बोले, देवी, मैं तो उस सार्थक रस को पा चुका हूं, जिससे क्षण भर हटने से जीवन निरर्थक होने लगता है। मैं उस रस को छोड़कर जीवन को निरर्थक बनाना नहीं चाहता। कुछ और रस हो, तो भी मुझे क्या?


रंभा ने अपने रंग-रूप और सौंदर्य की विशेषताएं बताईं। उसने कहा कि उसके शरीर से सौंदर्य की अजस्र धारा तो बहती ही रहती है, भीनी-भीनी सुवास की लहरियां भी फूटती रहती हैं। देवलोक में, जहां वह रहती है, कोई कभी वृद्ध नहीं होता। शुकदेव ने यह सुना तो बोले, देवी, आज हमें पहली बार यह पता लगा कि नारी शरीर इतना सुंदर होता है। यह आपकी कृपा से संभव हुआ। अब यदि भगवत प्रेरणा से पुनः जन्म लेना पड़ा, तो मैं नौ माह आप जैसी ही माता के गर्भ में रहकर इसका सुख लूंगा। अभी तो प्रभु कार्य ही प्रधान है।


यहाँ हमें ध्यान देना है कि हम इसे श्रृंगार और अध्यात्म का संवाद कह सकते हैं। भोग और मोक्ष का संवाद कह सकते हैं।यहाँ हमें अपनी दृष्टि सांसारिक स्थूलता से हटा कर पारमार्थिक सूक्ष्मता की ओर बड़ी सावधानी से ले जानी चाहिए। यहाँ रंभा को भोग और श्री शुकदेव जी को मोक्ष का प्रतीक मानना चाहिए।


इस संवाद के रचयिता अज्ञात हैं। यह संवाद आचार्य परंपरा से प्राप्त है। लेकिन है यह बहुत प्रसिद्ध।


रम्भा-शुक संवाद

रंभा रुपसुंदरी है और शुकदेवजी मुनि शिरोमणि ! रंभा यौवन और शृंगार का वर्णन करते नहीं थकती, तो शुकदेवजी ईश्वरानुसंधान का । दोनों के बीच हुआ संवाद अति सुंदर है;


रम्भा–

मार्गे मार्गे नूतनं चूतखण्डं खण्डे खण्डे कोकिलानां विरावः।

रावे रावे मानिनीमानभंगो भंगे भंगे मन्मथः पञ्चबाणः ॥


हे मुनि ! हर मार्ग में नयी मंजरी शोभायमान हैं, हर मंजरी पर कोयल सुमधुर टेहुक रही हैं । टेहका सुनकर मानिनी स्त्रीयों का गर्व दूर होता है, और गर्व नष्ट होते हि पाँच बाणों को धारण करनेवाले कामदेव मन को बेचेन बनाते हैं ।


श्री शुक उवाच–

मार्गे मार्गे जायते साधुसङ्गः,सङ्गे सङ्गे श्रूयते कृष्णकीर्तिः ।

कीर्तौ कीर्तौ नस्तदाकारवृत्तिः वृत्तौ वृत्तौ सच्चिदानन्द भासः ॥


हे रंभा ! हर मार्ग में साधुजनों का संग होता है, उन हर एक सत्संग में भगवान कृष्णचंद्र के गुणगान सुनने मिलते हैं । हर गुणगाण सुनते वक्त हमारी चित्तवृत्ति भगवान के ध्यान में लीन होती है, और हर वक्त सच्चिदानंद का आभास होता है ।

 

तीर्थे तीर्थे निर्मलं ब्रह्मवृन्दं वृन्दे वृन्दे तत्त्व चिन्तानुवादः ।

वादे वादे जायते तत्त्वबोधो बोधे बोधे भासते चन्द्रचूडः ॥


हर तीर्थ में पवित्र ब्राह्मणों का समुदाय विराजमान है । उस समुदाय में तत्त्व का विचार हुआ करता है । उन विचारों में तत्त्व का ज्ञान होता है, और उस ज्ञान में भगवान चंद्रशेखर शिवजी का भास होता है ।

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रम्भा:

गेहे गेहे जङ्गमा हेमवल्ली वल्यां वल्यां पार्वणं चन्द्रबिम्बम् ।

बिम्बे बिम्बे दृश्यते मीन युग्मं,युग्मे युग्मे पञ्चबाणप्रचारः ॥


हे मुनिवर ! हर घर में घूमती फिरती सोने की लता जैसी ललनाओं के मुख पूर्णिमा के चंद्र जैसे सुंदर हैं । उन मुखचंद्रो में नयनरुप दो मछलीयाँ दिख रही है, और उन मीनरुप नयनों में कामदेव स्वतंत्र घूम रहा है ।


शुकः

स्थाने स्थाने दृश्यते रत्नवेदी,वेद्यां वेद्यां सिद्धगन्धर्वगोष्ठी ।

गोष्ठयां गोष्ठयां किन्नरद्वन्द्वगीतं,गीते गीते गीयते रामचन्द्रः ॥


हे रंभा ! हर स्थान में रत्न की वेदी दिख रही है, हर वेदी पर सिद्ध और गंधर्वों की सभा होती है । उन सभाओं में किन्नर गण किन्नरीयों के साथ गाना गा रहे हैं । हर गाने में भगवान रामचंद्र की कीर्ति गायी जा रही है ।

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रम्भा:

पीनस्तनी चन्दनचर्चिताङ्गी,विलोलनेत्रा तरुणी सुशीला ।

नाऽऽलिङ्गिता प्रेमभरेण येन,वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥


हे मुनिवर ! सुंदर स्तनवाली, शरीर पर चंदन का लेप की हुई, चंचल आँखोंवाली सुंदर युवती का, प्रेम से जिस पुरुष ने आलिंगन किया नहीं, उसका जन्म व्यर्थ गया ।


शुक:

अचिन्त्य रूपो भगवान्निरञ्जनो,विश्वम्भरो ज्ञानमयश्चिदात्मा ।

विशोधितो येन ह्रदि क्षणं नो,वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥


जिसके रुप का चिंतन नहीं हो सकता, जो निरंजन, विश्व का पालक है, जो ज्ञान से परिपूर्ण है, ऐसे चित्स्वरुप परब्रह्म का ध्यान जिसने स्वयं के हृदय में किया नहीं है, उसका जन्म व्यर्थ गया ।

______

 

रम्भाः

कामातुरा पूर्णशशांक वक्त्रा,बिम्बाधरा कोमलनाल गौरा ।

नाऽऽलिङ्गिता स्वे ह्र्दये भुजाभ्यां,वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥


हे मुनि ! भोग की ईच्छा से व्याकुल, परिपूर्ण चंद्र जैसे मुखवाली, बिंबाधरा, कोमल कमल के नाल जैसी, गौर वर्णी कामिनी जिसने छाती से नहीं लगायी, उसका जीवन व्यर्थ गया ।

 

शुक:

चतुर्भुजः चक्रधरो गदायुधः,पीताम्बरः कौस्तुभमालया लसन् ।

ध्याने धृतो येन न बोधकाले,वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥


हे रंभा ! चक्र और गदा जिसने हाथ में लिये हैं, ऐसे चार हाथवाले, पीतांबर पहेने हुए, कौस्तुभमणि की माला से विभूषित भगवान का ध्यान, जिसने जाग्रत अवस्था में किया नहीं, उसका जन्म व्यर्थ गया ।

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रम्भा:   

विचित्रवेषा नवयौवनाढ्या,लवङ्गकर्पूर सुवासिदेहा ।

नाऽऽलिङ्गिता येन दृढं भुजाभ्यां,वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥


हे मुनिराज ! अनेक प्रकार के वस्त्र और आभूषणों से सज्ज, लवंग कर्पूर इत्यादि सुगंध से सुवासित शरीरवाली नवयुवती को, जिसने अपने दो हाथों से आलिंगन दिया नहीं, उसका जन्म व्यर्थ गया ।

 

शुक:

नारायणः पङ्कजलोचनः प्रभुः,केयूरवान् कुण्डल मण्डिताननः।

भक्त्या स्तुतो येन न शुद्धचेतसा,वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥


कमल जैसे नेत्रवाले, केयूर पर सवार, कुंडल से सुशोभित मुखवाले, संसार के स्वामी भगवान नारायण की स्तुति जिसने एकाग्रचित्त होकर, भक्तिपूर्वक की नहीं, उसका जीवन व्यर्थ गया ।

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रम्भा:

प्रियवंदा चम्पकहेमवर्णा,हारावलीमण्डितनाभिदेशा ।

सम्भोगशीला रमिता न येन,वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥


हे मुनिवर ! प्रिय बोलनेवाली, चंपक और सुवर्ण के रंगवाली, हार का झुमका नाभि पर लटक रहा हो ऐसी, स्वभाव से रमणशील ऐसी स्त्री से जिसने भोग विलास नहीं किया, उसका जीवन व्यर्थ गया ।

 

शुकः

श्रीवत्सलक्षाङ्कितह्रत्प्रदेशः,तार्क्ष्यध्वजः शार्ङ्गधरः परात्मा ।

न सेवितो येन नृजन्मनाऽपि,वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥


जिस प्राणी ने मनुष्य शरीर पाकर भी, भृगुलता से विभूषित ह्रदयवाले, धजा में गरुड वाले, और शाङ्ग नामके धनुष्य को धारण करनेवाले, परमात्मा की सेवा न की, उसका जन्म व्यर्थ गया ।

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रम्भा:   

चलत्कटी नूपुरमञ्जुघोषा,नासाग्रमुक्ता नयनाभिरामा ।

न सेविता येन भुजङ्गवेणी,वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥


हे मुनिश्रेष्ठ ! चंचल कमरवाली, नूपुर से मधुर शब्द करनेवाली, नाक में मोती पहनी हुई, सुंदर नयनों से सुशोभित, सर्प के जैसा अंबोडा जिसने धारण किया है, ऐसी सुंदरी का जिसने सेवन नहीं किया, उसका जन्म व्यर्थ गया ।


शुक:

विश्वम्भरो ज्ञानमयः परेशः,जगन्मयोऽनन्तगुण प्रकाशी ।

आराधितो नापि वृतो न योगे,वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥


हे रंभा ! संसार का पालन करनेवाले, ज्ञान से परिपूर्ण, संसार स्वरुप, अनंत गुणों को प्रकट करनेवाले भगवान की आराधना जिसने नहीं की, और योग में उनका ध्यान जिसने नहीं किया, उसका जन्म व्यर्थ गया ।

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रम्भा:

ताम्बूलरागैः कुसुम प्रकर्षैः,सुगन्धितैलेन च वासितायाः ।

न मर्दितौ येन कुचौ निशायां,वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥


हे मुनि ! सुगंधी पान, उत्तम फूल, सुगंधी तेल, और अन्य पदार्थों से सुवासित कायावाली कामिनी के कुच का मर्दन, रात को जिसने नहीं किया उसका जीवन व्यर्थ गया ।

 

शुकः

ब्रह्मादि देवोऽखिल विश्वदेवो,मोक्षप्रदोऽतीतगुणः प्रशान्तः ।

धृतो न योगेन हृदि स्वकीये,वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥


ब्रह्मादि देवों के भी देव, संपूर्ण संसार के स्वामी, मोक्षदाता, निर्गुण, अत्यंत शांत ऐसे भगबान का ध्यान जिसने योग द्वारा हृदय में नहीं किया उसका जीवन व्यर्थ गया ।

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रम्भाः

कस्तूरिकाकुंकुम चन्दनैश्च,सुचर्चिता याऽगुरु धूपिकाम्बरा ।

उरः स्थले नो लुठिता निशायां,वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥


कस्तूरी और केसर से युक्त चंदन का लेप जिसने किया है, अगरु के गंध से सुवासित वस्त्र धारण की हुई तरुणी, रात को जिस पुरुष की छाती पर लेटी नहीं, उसका जन्म व्यर्थ गया ।


शुकः 

आनन्दरुपो निजबोधरुपः,दिव्यस्वरूपो बहुनामरपः ।

तपः समाधौ मिलितो न येन,वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥


हे रंभा ! आनंद से परिपूर्ण रुपवाले, दिव्य शरीर को धारण करनेवाले, जिनके अनेक नाम और रुप हैं ऐसे भगवान के दर्शन जिसने समाधि में नहीं किये, उसका जीवन व्यर्थ गया ।

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रम्भा:

कठोर पीनस्तन भारनम्रा,सुमध्यमा चञ्जलखञ्जनाक्षी ।

हेमन्तकाले रमिता न येन,वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥


जिस पुरुष ने हेमंत ऋतु में, कठोर और भरे हुए स्तन के भार से झुकी हुई, पतली कमरवाली, चंचल और खंजर से नैनोंवाली स्त्री का संभोग नहीं किया, उसका जीवन व्यर्थ गया ।


शुकः

तपोमयो ज्ञानमयो विजन्मा,विद्यामयो योगमयः परात्मा ।

चित्ते धृतो नो तपसि स्थितेन,वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥


हे रंभा ! तपोमय, ज्ञानमय, जन्मरहित, विद्यामय, योगमय परमात्मा को, तपस्या में लीन होकर जिसने चित्त में धारण नहीं किया, उसका जीवन व्यर्थ गया।

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रम्भाः   

सुलक्षणा मानवती गुणाढ्या,प्रसन्नवक्त्रा मृदुभाषिणी या ।

नो चुम्बिता येन सुनाभिदेशे,वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥


हे मुनिवर ! सद्लक्षण और गुणों से युक्त, प्रसन्न मुखवाली, मधुर बोलनेवाली, मानिनी सुंदरी के नाभि का जिसने चुंबन नहीं किया उसका जीवन व्यर्थ गया ।

 

शुकः

पल्यार्जितं सर्वसुखं विनश्वरं,दुःखप्रदं कामिनिभोग सेवितम् ।

एवं विदित्वा न धृतो हि योगो,वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥


हे रंभा ! जिस इन्सान ने, नारी के सेवन से उत्पन्न सब सुख नाशवंत, और दुःखदायक है ऐसा जानने के बावजुद जिसने योगाभ्यास नहीं किया, उसका जीवन व्यर्थ गया ।

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रम्भा:

विशालवेणी नयनाभिरामा,कन्दर्प सम्पूर्ण निधानरुपा ।

भुक्ता न येनैव वसन्तकाले,वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥


जिस पुरुष ने वसंत ऋतु में लंबे बालवाली, सुंदर नेत्रों से सुशोभित कामदेव के समस्त भंडाररुप ऐसी कामिनी के साथ विहार न किया हो, उसका जीवन व्यर्थ गया ।


शुकः

मायाकरण्डी नरकस्य हण्डी,तपोविखण्डी सुकृतस्य भण्डी ।

नृणां विखण्डी चिरसेविता चेत्,वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥


हे रंभा ! नारी माया की पटारी, नर्क की हंडी, तपस्या का विनाश करनेवाली, पुण्य का नाश करनेवाली, पुरुष की घातक है; इस लिए जिस पुरुष ने अधिक समय तक उसका सेवन किया है, उसका जीवन व्यर्थ गया ।

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रम्भाः

समस्तशृङ्गार विनोदशीला,लीलावती कोकिल कण्ठमाला ।

विलासिता नो नवयौवनेन,वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥


हे मुनि ! जिस पुरुष ने अपनी युवानी में, समस्त शृंगार और मनोविवाद करने में चतुर और अनेक लीलाओं में कुशल और कोकिलकंठी कामिनी के साथ विलास नहीं किया, उसका जीवन व्यर्थ है ।


शुक:

समाधि ह्रंत्री जनमोहयित्री,धर्मे कुमन्त्री कपटस्य तन्त्री ।

सत्कर्म हन्त्री कलिता च येन,वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥


समाधि का नाश करनेवाली, लोगों को मोहित करनेवाली, धर्म विनाशिनी, कपट की वीणा, सत्कर्मो का नाश करनेवाली नारी का जिसने सेवन किया, उसका जीवन व्यर्थ गया ।

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रम्भा:   

बिल्वस्तनी कोमलिता सुशीला,सुगन्धयुक्ता ललिता च गौरी ।

नाऽऽश्लेषिता येन च कण्ठदेशे,वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥


हे मुनिराज ! बिल्वफल जैसे कठिन स्तन है, अत्यंत कोमल जिसका शरीर है, जिसका स्वभाव प्रिय है, ऐसी सुवासित केशवाली, ललचानेवाली गौर युवती को जिसने आलिंगन नहीं दिया, उसका जीवन व्यर्थ गया ।

 

शुक:

चिन्ताव्यथादुःखमया सदोषा,संसारपाशा जनमोहकर्त्री ।

सन्तापकोशा भजिता च येन,वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥


चिंता, पीडा, और अनेक प्रकार के दुःख से परिपूर्ण, दोष से भरी हुई, संसार में बंधनरुप, और संताप का खजाना, ऐसी नारी का जिसने सेवन किया उसका जन्म व्यर्थ गया ।

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रम्भा:

आनन्द कन्दर्पनिधान रुपा,झणत्क्वणत्कं कण नूपुराढ्या ।

नाऽस्वादिता येन सुधाधरस्था,वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥


हे मुनिवर ! आनंद और कामदेव के खजाने समान, खनकते कंगन और नूपुर पहेनी हुई कामिनी के होठ पर जिसने चुंबन किया नहीं, उस पुरुष का जीवन व्यर्थ है ।

 

शुक:

कापट्यवेषा जनवञ्चिका सा,विण्मूत्र दुर्गन्धदरी दुराशा ।

संसेविता येन सदा मलाढ्या,वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥


छल-कपट करनेवाली, लोगों को बनानेवाली, विष्टा-मूत्र और दुर्गंध की गुफारुप, दुराशाओं से परिपूर्ण, अनेक प्रकार से मल से भरी हुई, ऐसी स्त्री का सेवन जिसने किया, उसका जीवन व्यर्थ है ।

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रम्भाः   

चन्द्रानना सुन्दरगौरवर्णा,व्यक्तस्तनीभोगविलास दक्षा ।

नाऽऽन्दोलिता वै शयनेषु येन,वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥


हे मुनिवर ! चंद्र जैसे मुखवाली, सुंदर और गौर वर्णवाली, जिसकी छाती पर स्तन व्यक्त हुए हैं ऐसी, संभोग और विलास में चतुर, ऐसी स्त्री को बिस्तर में जिसने आलिंगन नहीं दिया, उसका जीवन व्यर्थ है ।


शुक:     

उन्मत्तवेषा मदिरासु मत्ता,पापप्रदा लोकविडम्बनीया ।

योगच्छला येन विभाजिता च,वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥


हे रंभा ! पागल जैसा विचित्र वेष धारण की हुई, मदिरा पीकर मस्त बनी हुई, पाप देनेवाली, लोगों को बनानेवाली, और योगीयों के साथ कपट करनेवाली स्त्री का सेवन जिसने किया है, उसका जीवन व्यर्थ है ।

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रम्भा:   

आनन्दरुपा तरुणी नगाङ्गी,सद्धर्मसंसाधन सृष्टिरुपा ।

कामार्थदा यस्य गृहे न नारी,वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥


हे मुनि ! आनंदरुप, नतांगी युवती, उत्तम धर्म के पालन में और पुत्रादि पैदा करने में सहायक, इंद्रियों को संतोष देनेवाली नारी जिस पुरुष के घर में न हो, उसका जीवन व्यर्थ है ।

 

शुक:     

अशौचदेहा पतित स्वभावा,वपुःप्रगल्भा बललोभशीला ।

मृषा वदन्ती कलिता च येन,वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥


अशुद्ध शरीरवाली, पतित स्वभाववाली, प्रगल्भ देहवाली, साहस और लोभ करानेवाली, झूठ बोलनेवाली, ऐसी नारी का विश्वास जिसने किया, उसका जीवन व्यर्थ है ।

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रम्भा:

क्षामोदरी हंसगतिः प्रमत्ता,सौंदर्यसौभाग्यवती प्रलोला ।

न पीडिता येन रतौ यथेच्छं,वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥


हे मुनिवर ! पतली कमरवाली, हंस की तरह चलनेवाली, प्रमत्त सुंदर, सौभाग्यवती , चंचल स्वभाववाली स्त्री को रतिक्रीडा के वक्त अनुकुलतया पीडित की नहीं है, उसका जीवन व्यर्थ है ।


शुक:

संसारसद्भावन भक्तिहीना,चित्तस्य चौरा हृदि निर्दया च ।

विहाय योगं कलिता च येन,वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम् ॥


हे रंभा ! संसार की उत्तम भावनाओं को प्रकट करनेवाले प्रेम से रहित पुरुषों के चित्त को चोरनेवाली, ह्रदय में दया न रखनेवाली, ऐसी स्त्री का आलिंगन, योगाभ्यास छोडकर जिस पुरुष ने किया, उसका जीवन व्यर्थ है ।

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रम्भा:

सुगन्धैः सुपुष्पैः सुशय्या सुकान्ता वसन्तो ऋतुः पूर्णिमा पूर्णचन्द्रः ।

यदा नास्ति पुंस्त्वं नरस्य प्रभूतं ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम् ॥


हे मुनिवर ! सुंदर, सुगंधित पुष्पों से सुशोभित शय्या हो, मनोनुकूल सुंदर स्त्री हो, वसंत ऋतु हो, पूर्णिमा के चंद्र की चांदनी खीली हो, पर यदि पुरुष में परिपूर्ण पुरुषत्त्व न हो तो उसका जीवन व्यर्थ है ।


शुक:

सुरुपं शरीरं नवीनं कलत्रंधनं मेरुतुल्यं वचश्चारुचित्रम् ।

हरस्याङ्घि युग्मे मनश्चेदलग्नं ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम् ॥


हे रंभा ! सुंदर शरीर हो, युवा पत्नी हो, मेरु पर्वत समान धन हो, मन को लुभानेवाली मधुर वाणी हो, पर यदि भगवान शिवजी के चरणकमल में मन न लगे, तो जीवन व्यर्थ है ।


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Sunday 2 August 2020

मित्र

वह मित्र नहीँ है जिसके कोप से डर लगता हो, अथवा जिससे शङ्कित होकर व्यवहार किया जाता हो। मित्र वही होता है जिसमेँ पिता के समान विश्वास होता है,अन्य तो संगत इकट्ठे हुए अर्थात् "साथी" मात्र कहलाते हैँ।

मित्र का कभी क्षण भर के लिए भी विरोध या अपकार नहीं करना चाहिए :

जे न मित्र दुख होहिं दुखारी। तिन्हहि बिलोकत पातक भारी ॥
निज दुख गिरि सम रज करि जाना। मित्रक दुख रज मेरु समाना ॥1

जो लोग मित्र के दुःख से दुःखी नहीं होते, उन्हें देखने से ही बड़ा पाप लगता है। अपने पर्वत के समान दुःख को धूल के समान और मित्र के धूल के समान दुःख को सुमेरु (बड़े भारी पर्वत) के समान जाने॥1॥

जिन्ह कें असि मति सहज न आई। ते सठ कत हठि करत मिताई॥
कुपथ निवारि सुपंथ चलावा। गुन प्रगटै अवगुनन्हि दुरावा॥2

जिन्हें स्वभाव से ही ऐसी बुद्धि प्राप्त नहीं है, वे मूर्ख हठ करके क्यों किसी से मित्रता करते हैं? मित्र का धर्म है कि वह मित्र को बुरे मार्ग से रोककर अच्छे मार्ग पर चलावे। उसके गुण प्रकट करे और अवगुणों को छिपावे॥2॥

देत लेत मन संक न धरई। बल अनुमान सदा हित करई॥
बिपति काल कर सतगुन नेहा। श्रुति कह संत मित्र गुन एहा॥3॥

देने-लेने में मन में शंका न रखे। अपने बल के अनुसार सदा हित ही करता रहे। विपत्ति के समय तो सदा सौ गुना स्नेह करे। वेद कहते हैं कि संत और मित्र के गुण ये हैं॥3॥

आगे कहे मृदु बचन बनाई। पाछें अनहित मन कुटिलाई॥
जाकर चित अहि गति सम भाई। अस कुमित्र परिहरेहिं भलाई॥4॥

जो सामने तो बना-बनाकर कोमल वचन कहता है और पीठ-पीछे बुराई करता है तथा मन में कुटिलता रखता है- हे भाई! (इस तरह) जिसका मन साँप की चाल के समान टेढ़ा है, ऐसे कुमित्र को तो त्यागने में ही भलाई है॥4॥

सेवक सठ नृप कृपन कुनारी। कपटी मित्र सूल सम चारी॥
सखा सोच त्यागहु बल मोरें। सब बिधि घटब काज मैं तोरें॥5॥

मूर्ख सेवक, कंजूस राजा, कुलटा स्त्री और कपटी मित्र- ये चारों शूल के समान पीड़ा देने वाले हैं। हे सखा! मेरे बल पर अब तुम चिंता छोड़ दो। मैं सब प्रकार से तुम्हारे काम आऊँगा (तुम्हारी सहायता करूँगा)॥5॥


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